पत्तो से टपकती वो बारिश की बूंदे
छन से गिरकर वो खिडकी को चूमे
परदे की ओट में छिपता वो बादल
गरजते-बरसते आसमा में झूमे
धरती भी बन जाए मस्त कलंदर
वो नदियाँ भी बहे जो थे कभी अन्दर
हरी-हरी ज़मी पे मेढ़को का शोर
बाँध पायल जंगल में नाच उठा मोर
कतरा दरिया का बन गया समंदर
नई-नवेली धरती दिखे अति सुन्दर
बरसते बादल को कर लो सलाम
बादल तो चंचल है उसे नही है विराम
जाए कही भी बादल संदेसा ले जाए
बरसो इतना की धरा लहलहाए
मरूभूमि पर भी रखे कृपादृष्टि
लगातार बरसो जहां चाहिए अनवरत वृष्टि
मरू हो जाए शीतल ताप भी कम हो जाए
बंजर धरती भी फसल से लहलहाए
बारिश की बूंदों का अहसान रहेगा
किसानो के चेहरे पर मुस्कान बिखरेगा
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Friday, May 27, 2011
पत्तो से टपकती
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अना जी, बहुत ही प्यारी कविता लिखी है आपने। और हां, कविता का प्रस्तुतिकरण भी लाजवाब है।
ReplyDelete---------
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
बदल दीजिए प्रेम की परिभाषा...
nice poem...
ReplyDeletevery good