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Sunday, April 25, 2010

बैसाख


आँखों में मेरी है तृष्णा 
और ये तृष्णा है संपूर्ण हृदय में 
मैं हूँ वृष्टि-विहीन वैसाख के दिन 
संतप्त प्राण लगा है जलने 

तपता वायु से आंधी उठाता 
मन को सुदूर शून्य कि ओर दौड़ाता
अवगुंठन को उड़ाता , मै हूँ वैसाख के दिन तपता- तपाता 

जो फूल कानन को करता था आलोकित 
वो फूल सूखकर हो गया कला कलुषित(हाय)

झरना को बाधित है किसने किया 
निष्ठुर  पाषाण से अवारोधित किसने किया 
दुःख के शिखर पर किसने है बिठाया 
मैं हूँ बैसाख  के दिन तपता- तपाया 

1 comment:

  1. वैशाख के दिनों का बहुत बढिया वर्णन , सुंदर शब्दों का चयन

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