खिड़की से झांकती ये चिलचिलाती धूप
ये अलसाए से दिन बेरंग-बेरूप
सामने है कर्त्तव्य पर्वत-स्वरुप
निकलने न दे घर से ये चिलचिलाती धूप
ये आंच ये ताप कब होगा समाप्त
झुलसती ये गरमी बरस रही है आग
धूप के कहर ने तो ले ली कई जानें
निकलना हुआ मुश्किल सोचें है कई बहाने
हे सूर्य देव तुम कब तरस खाओगे
हे इन्द्र देव तुम कब बरस जाओगे
देती हूँ निमंत्रण बरसो झमाझम
धूप का प्रकोप जिससे कुछ हो जाए कम
सूर्य देव का आतिथ्य हमने सहर्ष स्वीकारा
पर अतिथि रहे कम दिन तो लगे सबको प्यारा
आपका आना तो अवश्यम्भावी है
नियमानुसार अब आपकी बारी है
आपके स्वागत में है पलकें बिछाए
खुली है खिड़की कब आप दरस जाए
बारिस के बूंदों की फुहार याद आये
देर न करिए आयें और बरस जाएँ
गरमी में गरम-गरम रचना का अच्छा शीतल अंत किया है ,,,,,सुन्दर रचना ...सुन्दर मन के सुन्दर भावो के साथ
ReplyDeleteशब्द पुष्टिकरण हटा दे ,,,टिपण्णी देने में दिक्कत हो रही है
ReplyDeleteyahi chah hai kab baarish ho kab garmi se chutkaara mile...sundar kavita
ReplyDeletebahut khoob! dil ki baat kah di.
ReplyDeletebahut khoobi se dil ki baat kah di!
ReplyDeleteIndra dev ko Bangalore wasion ka amantran!
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