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Tuesday, April 20, 2010

गीता का सार

                       यदि हम गीता को पुण्य भूमि भारत वर्ष की वांग्मय आत्मा कहें तो निश्चय ही अत्युक्ति न होगी . अपौरुषेय वेद-चतुष्टय के  बाद गीता ही ऐसा ग्रन्थ है जिसकी प्रमाणिकता और लोकप्रियता का प्रभाव भारतीय जनमानस पर अत्यधिक है . गीता की महत्ता इससे और भी बढ़ जाती है जब हम देखते है की प्राचीन भारत के शंकर ,रामानुज सदृश आचार्य से लेकर अर्वाचीन भारत के तिलक,अरविन्द तक ने गेट पर भाष्य, टीका, विवरण,व्याख्या,विमर्श आदि का प्रणयन किया और वैसा करने में अपनी-अपनी लेखनी को सार्थक समझा . जैसे सप्तशती चंडी को मार्कंडेय पुराण का एक क्षुद्र अंश  होते हुए भी , एक पृथक ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है ,ठीक उसी प्रकार सप्तशती गीता भी शतसहस्री संहिता महाभारत का एक क्षुद्रातीक्षुद्र अंश होते हुए भी एक पृथक ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत है.गीता  आज से  कितने सहस्र वर्ष पूर्व गाये गए थे - यह ऐतिहासिकों की खोज का विषय है,किन्तु उन शाश्वत उदार प्राणियों का प्रभाव भारतीय लोक मानस पर आज भी उतना भी बना हुआ है जितना अतीत में था .गीता की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारत भूमि के जो नागरिक पूर्णतया निरक्षर भी है वो भी गीता नाम के दो अक्षरों से अवश्यमेव परिचित है और उसकी शाश्वत उदार वाणियों के मूल भावों की न्यूनाधिक धारणा भी रखती है .
    जैसा कि सर्वविदित है प्राचीन आचार्यों ने आर्यों को मुख्यत: ४ वर्णों में विभाजित किया है -ब्राहमण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र .
इन चार में से  प्रथम तीन वर्ण को द्विजाति व चतुर्थ को एकजाति कहा जाता है . शास्त्र कारों ने प्रत्येक वर्ण के लिए पृथक-पृथक कर्मनुशासन भी किया है . क्षत्रिय वर्ण के लिए कर्मविधान करते हुए गीताकार ने कहा है -
शौर्यं तेजो धृतिर्दक्ष्यम   युद्धे चाप्यपलायनम .
दान्मीश्वर भावश्च  क्षात्रं कर्म स्वभावधम

शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से अपलायन, दान और ईश्वरभाव-ये सात क्षत्रिय वरना के लिए स्वभावध कर्म है 

गीताकार के पूर्वोधृत वचन पर यदि हम विश्लेष्णात्मक दृष्टि डाले तो देखेंगे कि छात्रवृत्ति के साथ योद्धावृत्ति का अविच्छेद्य सम्पर्क माना गया है  . शौर्यतेज,धृति (अल्पाधिक जय-पराजय में धैर्य न खोना ), दाक्ष्य (रणनीति निपुणता )युद्ध से अपलायन , दाम ( शत्रु वर्ग के प्रति प्रयोज्य साम,दाम,दंड ,भेद चतुर्विध राजनयिक उपायों में एक )और ईश्वरभाव (प्रभुता कि शक्ति )ये सातों क्षात्रवृत्तियां अल्प या अधिक अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योद्धावृत्ति से संपृक्त है ही . आज जब हम भारतवर्ष के कतिपय राजनयिक और सांस्कृतिक नेतायों को यह कहते हुए पाते है युद्ध या योद्धा मानव जीवन के लिए एक अनावश्यक तत्व है,स्वभावत: हमाती दृष्टि पूर्वोक्त गीतोक्ति के प्रति बलात आकृष्ट हो जाता है . एक ओर तो गीतकार कहते है कि मानव जाति में केवल एक वर्ण विशेष केवल युद्ध या योद्धावृत्ति के लिए ही उत्पन्न हुआ है,दूसरी ओर आधुनिक नेता युद्ध या योद्धावृत्ति को मानव जाति के लिए एक अनावश्यक तत्व मानते है .वसे तो जब कभी नेतागण मानवजाति के प्रति युद्ध या योद्धावृत्ति कि विपज्जनता के विषय में बोलते है तब वे बातें तो बहुत ही पुष्पित , पल्लवित एवं सुन्दर प्रतीत होता है किन्तु यदि हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने का प्रयास करें तो देखेंगें कि मानव सृष्टि के आदिकाल से लेकर आजतक मानव जाति के अस्तित्व को जिस तत्वा ने सुरक्षित रखा है , उसका नाम है युद्ध या संग्राम और इस युद्ध या संग्राम के वांग्मय तत्व  को जिसने रूप दिया है , उसका नाम है योद्धा या सैनिक ! विश्व का अतीत इतिहास योद्धाओं या सैनिकों का ही इतिहास रहा है , और यदि हम इसी  अतीत इतिहास के आधार पर विचार करें तो यह निश्चित है कि विश्व का भावी इतिहास भी सैनिक या योद्धाओं का ही इतिहास होगा और होकर रहेगा .
          पोर्वोक्ता गीतोक्ति से इतना तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है युद्धावृत्ति या योद्धावृत्ति क्षात्र वर्ण के लिए क्षात्र धर्मं का एक अनिवार्य अंग है .

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