पत्थरों को तोडती वो अधमरी सी बुढ़िया
बन गयी है वो आज बेजान सी गुडिया
कभी वो भी रहती थी महलों के अन्दर
कभी थी वो अपने मुकद्दर का सिकंदर
असबाबों से था भरा उसका भी महल
नौकरों और चाकरों का भी था चहल पहल
बड़े घर के रानी का राजा था दिलदार
नहीं थी कमी कुछ भी भरा था वो घरबार
किलकारियां खूब थी उस सदन में
अतिथि का स्वागत था भव्य भवन में
पूरे शहर में था ढिंढोरा इनका
गरीब जो आये न जाए खाली हाथ
शहर के धनिकों में था इनका स्वागत
शहर बड़े लोग थे इनसे अवगत
पर चाहो हमेशा जो होता नहीं वो
कठीनाइयों से भरे दिन आ गए जो
व्यवसाय की हानि सम्भला न उनसे
बेटे-बहू ने रखा न जतन से
बड़े घर के राजा न सहा पाए वो सब दिन
वरन कर लिया मृत्यु को पल गया छिन
बुढ़िया बेचारी के दिन बद से बदतर
गर्भधारिणी माँ को किया घर से बेघर
करती वो क्या कोई चारा नहीं था
इस उम्र में कोई सहारा भी नहीं था
मेहनत मजदूरी ही थी उसकी किस्मत
लो वो आ गयी राह पर तोडती पत्थर
बेहतर ....
ReplyDeleteजी शीर्षक देखते ही सबसे पहले याद आई विद्यालय में पढ़ी हुई कविता "वो तोडती पत्थर"!लेकिन पढने पर बहुत कुछ अलग पाया!एक बहुत अच्छी रचना आपकी!
ReplyDeleteकुंवर जी,