बस्तों के बोझ तले दबा हुआ बचपन
बसंत में भी खिल न पाया ये बुझा हुआ बचपन
बचपन वरदान था जो कभी अति सुन्दर
पर अब क्यों लगता है ये जनम - जला बचपन
अपनों से ही पीड़ित क्यों है आज बचपन
ये देन है किस सभ्यता का क्यों खो गया वो बचपन
वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
वो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना
वो सद्य खिले पुष्पों सा खिलना इठलाना
वो रह पर पड़े हुए पत्थरों से खेलना
कहाँ है वो बचपन जो छूटे तो पछताए
क्यों है वो परेशां ये बचपन छटपटाये
खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
ये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन
बचपन बचाओ
ReplyDeletesach kaha na kagaz ki kashti na baarish ka paani...wo budhiya nahi jisko kehte the naani...
ReplyDeleteयही हाल...सशक्त बात!
ReplyDeletebhulaye nahi bhul sakta ha koi woh bachpan ke din :)
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