कभी था आपस में सद्भाव
परिवार में था एका नहीं था टकराव
बच्चों से रहता था घर गुलज़ार
क्यों न हो होता था जो संयुक्त परिवार
पर ये तो रही बीते दिनों की बात
अब तो परिवार शतरंज बिछते है बिसात
कौन किसको पछाड़े और बिगाड़े बनते हुए बात
भाई भाई का दुश्मन पसंद नहीं एक दुसरे का साथ
मशीनों ने ले ली इंसानों का स्थान
हृदय है संवेदनहीन बेदिल बेजान
चिट्ठियां समेटती थी माटी की खुशबू
पर अब तो यंत्रों पर रहा न काबू
अनजान लोगो से बढाते है रिश्ता
टूटता है तो टूटे अपनों से नाता
आखिर क्या जरूरत रह गयी है अपनों की
बढ़ता है दायित्व मै तो चलूँ बचता बचाता
वर्तमान सामाजिक परिस्थिति की की खूबसूरत चर्चा इस बदलती तस्वीर के बहाने। सुन्दर।
ReplyDeleteनीचे से ऊपर की ओर तीसरी पंक्ति मे "ती" को समझ न पाया।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
मशीनो ने ले ली है इंसानो का स्थान
ReplyDeleteहृदय है ....
सुन्दर भाव
आपके ब्लाग पर लिखी पंक्तियाँ एक दूसरे पर चढ जा रही हैं पढने में परेशानी हो रही है
iss daur ki sachchaai ko bayaan kar diyaa. is kavitaa ke liye sadhvaad.
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
अद्भुत सुन्दर रचना! कमाल कर दिया है आपने! इतना ही कहूँगी की आपकी लेखनी को सलाम!
ReplyDeleteवाह ! कितनी सुन्दर पंक्तियाँ हैं ... मन मोह लिया
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