मधुप मत जाओ रे
फूलों से शहद लेते हुए कहीं
तुम काँटों से आहत न हो रे
इधर है बेला उधर है चम्पा
विविध फूल है सर्वत्र
व्यथा कथा अपने मन की
कह दो ये यहाँ है एकत्र
भ्रमर कहे मै ये जानूं
इधर बेला है उधर नलिनी
पर मैं न जाऊं इधर - उधर
ये नहीं है मेरी संगिनी
मैं तो अपनी व्यथा-कथा
बांचुंगा गुलाब के संग
गर मैं आहत होऊं तो क्या
सह लूंगा मै काँटों का दंश
waah sundar abhivyakti...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteiisanuii.blogspot.com
बहुत सुंदर रचना....
ReplyDeleteiisanuii.blogspot.com
वाह
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर
लग रहा है इस ब्लोग से हट नही पाऊंगा
ReplyDeleteआपका ये ब्लोग दिल मे कई मकान बनाये जा रहा है