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Wednesday, March 31, 2010

चंद्रमा के प्रकाश में ......

चंद्रमा के प्रकाश में बुधवार, 17 मार्च 2010 को अंडा देता कछुआ काफी सुंदर नजर आ रहा 
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पूरक

सुरज ने कहा यदि हम न उगें तो रत्रि कि कौन भगाए 
चन्दा ये कहे यदि मै न आऊँ कवि मन को कौन उकसाये
धरती ये कहे यदि न चलूँ तो क्या सूरज क्या चन्दा
दोनों ही है व्यर्थ बस मैं हूँ समर्थ भार लेती हूँ जन जन का
पशू – पक्षी कहे छोडो उनको उनका तो है लड़ना काम
कभी चन्द्र ग्रहण कभी सूर्य ग्रहण भूकम्प करे काम तमाम
यदि हुम न रहे सूरज न उगे चन्दा की तो क्या है बिसात
धरती की सारी सुन्दरता पर छायी है अपनी जमात
मानव ये कहे क्यों ये झगड़े कभी सुन लो हमारी भी बात
अस्तित्व तुम्हारी तभी तक है जब हुम सुने ये फ़रियाद
पेड़-पौधे कहे मुझे नष्ट न करो मानव हम पेड़ उगाये
धरती ये कहे मुझे मत बाँटो मानव फ़िर दोस्ती बढ़ाये
पशू –पक्षी कहे हमें मत मारो मानव हम उनको बचाये
हम ही तो है सबके रक्षक क्या हो यदी भक्षक बन जाये
सच तो है धरा सूरज चन्दा पशू पक्षी और हम इन्सां
सब एक दूजे के पूरक है उनमे न हो कोइ हिंसा

Sunday, March 28, 2010

मुहावारोक्ति


रवि के होते नौ दो ग्यारह रूचि के तो हो गए पौ बारह 
छू मंतर हो गयी दुःख सारे हुई खत्म नकली ये प्यार का खेल 


खरी खोटी सुनाया जम के रूचि गिरगिट रवि का रंग बदल गया 
उसको तो किनारा करना था वह टाल-मटोल कर निकल गया


रूचि के दुनिया में बहार आयी आँखों का पर्दा सिमट गया 
उसे तजने को जो ठानी थी जीना उसका भी खुश्वार हुआ 


मेरी ये पंक्ति कविता नहीं ये मुहावरों का मेला है 
जो कोई गलती दिख जाये ठीक करें आप का स्वागत है 

Saturday, March 27, 2010

अमृतान्जल

 आसमान का रंग है नीला हरी-हरी सी धरती

मटमैला है रंग ज़मीं की पर रंग नहीं है जल की

हर रंग में  यह ढल जाती है है यह बात गजब की
नष्ट न करो इस अमृत को संरक्षण कर लो जल की

पीकर घूँट अमृत की  जन-जन धन्यवाद दो इश्वर को
बेकार न हो जाये जीवन पानी को सांस समझ लो

मन की धुंदली आँखों से.........

मन की धुंदली आँखों से जाना जीवन का सच क्या है ,
न झूठा है न सच्चा है बस अपनी धुन में बढ़ता है

ऊपर से देखो दुनिया तो झगड़े में पड़ा है जगत सारा
मन की आँखों से देखो तो ये झगड़े प्यार के लिये सारा

ये आतंक की दुनिया है कहने दो उसे जो कहता है
मैं जानू ये आतंकी है प्यार का मारा बेचारा

Tuesday, March 23, 2010

मन की बात

रे मन तेरी ये दुस्साहस जो तूने प्रेम रचा डाला,
तिल-तिल जलती इस मन को अब दे छांव प्यार की मिटे ज्वाला II

मन की माने या दुनिया की जो बार बार ये बतलाती है ,
की प्यार  आग का दरिया है डूब के ही हमें पार जाना हैii

मन के कोने से आस जगी नहीं डरने की ये बात नहीं ,
प्यार ही तो है नफरत तो नहीं दुनिया की शाश्वत गाथा यही II

ek chhoti si kavita

मन व्याकुल जियरा बेचैन
बिन तेरे सब जीवन सून
भई ज़िन्दगी मिटटी मोल
क्यों सखी सजन ? नहीं  पेट्रोल

Monday, March 22, 2010

जीवन का सच



इस जीवन को जाना मैने
ना कुछ तेरा ना कुछ मेरा
जाने सभी पर माने ना
काव्याना का सन्देश प्यारा

व्यथा यही है मेरे मन की 
न समझे लोग इशारों को
आओ व्यथा को दूर करें
और स्थान न दें बंटवारे को

Sunday, March 21, 2010

nav durgaa chitran


प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघन्टेइति कुष्मान्डेइति चतुर्थकम                                           
पंचमं स्कन्दमातेइति षष्ठं कात्यायनी तथा
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीतिचाष्टमम
नवमं सिद्धिदात्रीति नवदुर्गा प्रतीर्तिता
उत्तिन्ना तारिण वाणि ब्रह्मनैव महात्मना

bhaktikaal

मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य भक्ति आंदोलन और लंबे, महाकाव्य कविताओं की रचना के प्रभाव से चिह्नित है. Avadhi और बृज भाषा बोलियों में साहित्य विकसित की गई थी. Avadhi में मुख्य कार्य मलिक मुहम्मद है Jayasi Padmavat और तुलसीदास Ramacharitamanas हैं. ब्रज भाषा में प्रमुख कार्य है तुलसीदास विनय पत्रिका और सूरदास सुर सागर हैं. Sadhukaddi भी आमतौर पर इस्तेमाल किया विशेष रूप से कबीर ने भाषा, उनके काव्य और dohas में था. 4 [] भक्ति काल भी कविता रूपों में महान सैद्धांतिक विकास मुख्यतः के रूप में चिह्नित संस्कृत स्कूल में कविता और फारसी स्कूल के पुराने तरीकों के मिश्रण से. ये दोहा छंद की तरह पैटर्न्स (दो liners), Sortha, Chaupaya (चार liners) आदि भी जब काव्य विभिन्न Rasas के तहत विशेषता थी उम्र था शामिल हैं. आदि काल के विपरीत (भी बुलाया वीर Gatha काल) जो वीर रासा (वीर काव्य) में काव्य के एक से अधिक मात्रा की विशेषता थी, भक्ति Yug कविता का एक और अधिक विविध और सक्रिय रूप से जो rasas की सारी सरगम फैला चिह्नित Shringara रस (प्रेम), वीर रासा (वीरता). भक्ति कविता दो स्कूलों - Nirguna स्कूल था (एक निराकार भगवान या एक संक्षिप्त नाम के विश्वासियों) और Saguna स्कूल (एक भगवान के गुण और विष्णु के अवतार के भक्तों के साथ विश्वासियों). कबीर और गुरु नानक Nirguna स्कूल के हैं, और उनके दर्शन आदि बहुत Sankaracharya के अद्वैत वेदांत दर्शन से प्रभावित था. वे Nirgun Nirakaar Bramh या निराकार निराकार एक की अवधारणा में विश्वास. Saguna स्कूल सूरदास, तुलसीदास और दूसरों की तरह मुख्य रूप से वैष्णव कवियों का प्रतिनिधित्व और Dvaita और Vishishta अद्वैत की पसंद द्वारा प्रतिपादित दर्शन के एक तार्किक विस्तार किया गया था आदि Madhavacharya इस विद्यालय में के रूप में मुख्य रचनाओं की तरह में देखा मुख्यतः अभिविन्यास में वैष्णव था Ramacharitamanas, सुर Saravali, सुर सागर राम और कृष्ण extoling. यह भी हिंदू और कई अब्दुल रहीम, मैंने खाना खान जो मुग़ल सम्राट अकबर के लिए एक अदालत कवि था और कृष्णा के एक महान भक्त था जैसे मुस्लिम भक्ति कवियों के आगमन के साथ कला में इस्लामी तत्वों के बीच जबरदस्त एकीकरण की उम्र थी चाहे जाति या धर्म के अनुयायियों की बड़ी संख्या में था Nirgun भक्ति काव्य के स्कूल भी प्रकृति में काफी धर्मनिरपेक्ष और कबीर और गुरु नानक की तरह अपनी propounders था.

Amir khusro.jpg








1253 खुसरो Patiali में आज जो उत्तरी भारत में उत्तर प्रदेश का राज्य है में एटा के पास का जन्म हुआ. उनके पिता अमीर सैफुद्दीन बल्ख से आधुनिक दिन अफगानिस्तान में और उसकी माँ आया दिल्ली के थे. 1260 अपने पिता, खुसरो की मौत के बाद उसकी माँ के साथ दिल्ली गया था. 1271 खुसरो कविता की अपनी पहली दीवान संकलित, "Tuhfatus-Sighr". 1272 खुसरो अदालत कवि के रूप में राजा Balban भतीजे मलिक Chhajju के साथ अपनी पहली नौकरी मिल गई. 1276 खुसरो Bughra खान के बेटे (है Balban के साथ एक कवि के रूप में काम शुरू कर दिया). जबकि उसका दूसरा दीवान, Wastul-हयात, खुसरो बंगाल का दौरा किया लिखने 1279. 1281 सुल्तान मोहम्मद (है Balban दूसरे बेटे से कार्यरत हैं) और उसके साथ मुल्तान के पास गया. 1285 खुसरो हमलावर मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में एक सैनिक के रूप में भाग लिया. वह कैदी लिया था, लेकिन बच गया. 1287 अमीर खुसरो हातिम अली (एक और संरक्षक) के साथ अवध के पास गया. 1288 उनकी पहली mathnavi, "Qiranus-Sa'dain" पूरा किया गया. 1290 जब जलाल दिन Firuz Khilji उद सत्ता में आई है, खुसरो द्वितीय mathnavi, "Miftahul Futooh" के लिए तैयार था. 1294 उनके तीसरे दीवान "Ghurratul-कमल 'पूरा हो गया. 1295 Ala उद दिन Khilji (कभी कभी वर्तनी "Khalji") सत्ता में आई और Devagiri और गुजरात पर हमला किया.1298 खुसरो अपने 'Khamsa-ई पूरा-Nizami ". इतिहास 1301 Khilji Ranthambhor, चित्तौर, मालवा और अन्य स्थानों पर हमला किया, और खुसरो राजा के लिए लिखने के लिए के साथ रहे. 1310 खुसरो निजामुद्दीन Auliya के लिए बंद हो गया, और Khazain उल Futuh पूरा किया. 1315 अलाउद्दीन Khilji मर गया. खुसरो mathnavi "Duval रानी-Khizr खान पूरा '(एक रोमांटिक कविता). 1316 कुतुब उद दिन मुबारक शाह राजा बन गया है, और ऐतिहासिक चौथे mathnavi Noh 'Sepehr "पूरा किया गया. 1321 मुबारक Khilji (कभी कभी वर्तनी "मुबारक Khalji") की हत्या और Ghiyath अल था दीन तुगलक सत्ता में आई थी. खुसरो को Tughluqnama लिखना शुरू कर दिया. 1325 सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के सत्ता में आए थे. निजामुद्दीन Auliya मृत्यु हो गई और छह महीने बाद इतनी खुसरो किया. है खुसरो कब्र दिल्ली के निजामुद्दीन दरगाह में अपने गुरु के पास है. खुसरो रॉयल कवि
खुसरो सर्जनात्मकता का शास्त्रीय दिल्ली सल्तनत से अधिक सात शासकों की शाही अदालतों से जुड़े कवि था. वह उत्तर भारत और पाकिस्तान में बहुत लोकप्रिय है, क्योंकि कई खिलाड़ी पहेलियों, गीतों और किंवदंतियों के उसे जिम्मेदार ठहराया. अपने भारी साहित्यिक उत्पादन और प्रसिद्ध लोक व्यक्तित्व के माध्यम से, खुसरो पहले एक सच्चे बहु सांस्कृतिक या बहुलवादी पहचान के साथ (रिकॉर्ड) भारतीय personages में से एक का प्रतिनिधित्व करता है.
वह दोनों फारसी और हिंदुस्तानी में लिखा था. उन्होंने यह भी तुर्की, अरबी और संस्कृत बात की थी. उनकी कविता अब भी पाकिस्तान और भारत में सूफी दरगाहों पर आज गाया है.
अमीर खुसरो एक Khamsa के लेखक जो अनुकरणीय था कि के पहले-फारसी भाषा के कवि Nizami Ganjavi.उनके काम करने के लिए Transoxiana में Timurid अवधि के दौरान फारसी कविता की महान कृतियों में से एक माना जाता था




अमीर खुसरो की पहेलियां... (दो-सुखन)

विशेष नोट : बचपन में नानी के घर पर ये पहेलियां भी हमसे पूछी जाती थीं... कुछ ही याद थीं, लेकिन अब इंटरनेट से ढूंढ़कर कई 'दो सुखन' पहेलियां डाल रहा हूं... 'सुखन' फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ कथन या उक्ति है... अमीर खुसरो के 'दो सुखन' में दो कथनों या उक्तियों का एक ही उत्तर होता है... इसका मूल आधार एक ही शब्द के दो-दो अर्थ हैं..

दीवार टूटी क्यों...?
राहगीर लुटा क्यों...?


जोगी भगा क्यों...?
ढोलकी चुपी क्यों...?

गोश्त खाया न क्यों...?
डोम गाया न क्यों...?

मुसाफिर प्यासा क्यों...?
गधा उदासा क्यों...?

रोटी जली क्यों...?
घोड़ा अड़ा क्यों...?
पान सड़ा क्यों...?

सितार बजा न क्यों...?
औरत नहाई न क्यों...?

घर अंधियारा क्यों...?
फकीर बिगड़ा क्यों...?

अनार चखा न क्यों...?
वज़ीर रखा न क्यों...?

दही जमा न क्यों...?
नौकर रखा न क्यों...?

समोसा खाया न क्यों...?
जूता पहना न क्यों...?

पंडित नहाया न क्यों...?
धोबन पिटी क्यों...?

2. पवन  चालत  वेह  देहे  बढ़ावे 
जल   पीवत  वेह  जीव  गंवावय 
है  वेह  पियरी  सुन्दर  नार ,
नार  नहीं  पर  है  वेह  नार   उत्तर - आग .

1


1. नर  नारी  कहलाती  है ,

और  बिन  वर्षा जल  जाती  है ;
पुरख  से  आवे  पुरख  में  जाई ,
न  दी  किसी  ने  बूझ  बताई .  उत्तर -नदी 





कवितायेँ 


ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार.





सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन



छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भटी का मदवा पिलाइके
मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवा
अपनी सी रंग दीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
खुसरो निजाम के बल बल जाए
मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके






Thursday, March 18, 2010

Dainik Jagran E- Paper - city. Local news from 37 locations on Dainik Jagran Yahoo! India E-paper

काशी नगरी में तैयार हो रहा साहित्य के शिव का रचना समग्र
श्याम बिहारी श्यामल, वाराणसी इसे इतिहास का पुनरावृत्त होना ही कहेंगे कि जिस काशी में बैठकर हिन्दी साहित्य के शिव कहे जाने वाले बाबू शिवपूजन सहाय ने एक से एक अमर कृतियों का संपादन-कार्य किया था, वहीं कोई आठ दशक बाद आज स्वयं उनकी रचनाओं और उनसे जुड़े तमाम साहित्यिक संदर्भो को शिवपूजन सहाय समग्र के नाम से अंतिम रूप दिया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि उनके हाथों संशोधित-संपादित ऐसी अमर कृतियों में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का उपन्यास रंगभूमि भी शामिल है तो जयशंकर प्रसाद का उपन्यास तितली भी। इसी सूची में वह प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ भी सम्मिलित है जो संपादकाचार्य आचार्य द्विवेदी को काशी-नगरी में सन् 1933 में हिन्दी संसार की ओर से समारोहपूर्वक समर्पित किया गया था। यह विशाल ग्रंथ इस रूप में भी उल्लेखनीय है कि इसके मुद्रण के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने इंग्लैंड से विशेष प्रकार का कागज मंगवाया था जिसमें दीमक या कीड़े लगने की आशंका नगण्य होती है। समग्र को अंतिम रूप देने में जुटे प्रो. मंगलमूर्ति बताते हैं कि यह ग्रंथावली अब तक प्रकाशित तमाम रचनावलियों से इस मायने में भिन्न होगी क्योंकि इसमें केवल नामित रचनाकार यानी शिवजी से संबंधित ही नहीं बल्कि द्विवेदीयुगीन व उत्तर द्विवेदीयुगीन ऐसे तमाम साहित्यकारों की दुर्लभ व अब तक अप्रकाशित तस्वीरें व उनसे जुड़ी सामग्री होगी, जो शिवजी के संपर्क में आए थे। समग्र स्वाभाविक रूप से प्रदीर्घ यानी दस खंडों में होगा। इसमें शिवजी को लिखे उस समय के प्रमुख साहित्यकारों व प्रतिनिधि व्यक्तित्वों के तकरीबन दो हजार पत्र शामिल किए गए हैं जबकि स्वयं उनके द्वारा दूसरों को लिखी चिट्ठियां भी पांच सौ की संख्या में उपलब्ध कराई गई हैं। उन्होंने बताया कि शिवजी के संग्रह के ऐसे पत्रों की कुल संख्या करीब आठ हजार है जिनमें से चुनकर उक्त पत्र निकाले गये हैं। बिहार के मगध विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे प्रो.मंगलमूर्ति शिवजी के कनिष्ठ पुत्र हैं व नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद काशी में सिगरा क्षेत्र में नगर निगम के पास रह रहे हैं। वह अवकाशग्रहण के बाद तीन साल तक यमन गणराज्य में भाषा विज्ञान के अतिथि प्राध्यापक भी रह चुके हैं। फिलहाल यहां पिछले कई वर्षो से समग्र के कार्य में जुटे हुए हैं। ज्ञातव्य है कि शिवजी पिछली शताब्दी के आरंभिक दौर में हिन्दी के वरेण्य संपादकाचार्यो में अग्रणी रहे। उन्होंने हिन्दी के अनेक प्रमुख साहित्यकारों ही नहीं, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का भी संशोधन किया था। भारत सरकार ने सन् 1960 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया था। उनके निधन के पैंतीस वर्षो बाद 1998 में केंद्रीय संचार मंत्रालय ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया जबकि इससे पहले फिल्म डिवीजन बंबई व दूरदर्शन दिल्ली ने उनके जीवन और साहित्य पर केन्दि्रत चार वृत्त-चित्र भी निर्मित और प्रसारित किए। काशी से लगाव की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि कलकत्ता से मतवाला मंडल छोड़कर आने के बाद शिवजी ने भैरवनाथ क्षेत्र में दंडपाणि भैरव मंदिर के निकट डेरा डाला था। यहीं सालभर बाद उनकी दूसरी पत्‍‌नी का निधन हुआ। बाद में बनारस से ही तीसरा विवाह हुआ। बारात छपरा के मसरख गई थी। वे 1933 तक लगातार यहीं रहे व इसके बाद लहेरियासराय चले गए। यह भी संयोग ही रहा कि शिवजी ने सबसे पहले 1913 में अपने जीवन की पहली नौकरी बनारस कचहरी में ही कातिब यानी नकलनबीस के तौर शुरू की थी किंतु कुछ महीने बाद ही अध्यापक की मनोनुकूल नौकरी मिल जाने पर आरा चले गए थे। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि शिवजी ने प्रसाद की महान काव्यकृति कामायनी का संशोधन किया था या नहीं, यह अब भी शोध का विषय है। इस बात की चर्चा तो शुरू से की जाती रही है किंतु उन्हें अब तक इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है जबकि तितली (प्रसाद का उपन्यास) के संशोधित मूल पृष्ठ तो अवश्य उपलब्ध हैं, जिनमें प्रसाद व उनकी हस्तलिपियां हैं। ऐसे पृष्ठ समग्र में शामिल किए जा रहे हैं। प्रो.मंगलमूर्ति ने बताया कि शिवजी के संग्रह की महत्वपूर्ण किताबें व पत्र-सामग्री दिल्ली के नेहरू मेमोरियल म्युजियम को सौंप दिए गए हैं जबकि शेष सामग्री बक्सर के राजकीय पुस्तकालय को। इस संग्रह में उस समय के ज्यादातर साहित्यकारों की वैसी पुस्तकें भी सम्मिलित हैं जो वे लोग छपने के साथ ही हस्ताक्षर-पूर्वक शिवजी को समर्पित कर भेजा करते थे। ऐसी सामग्री का संग्रह विशाल व बहुमूल्य है जिसका संरक्षण जरूरी है। इन्हें घर में संभालना कठिन कार्य हो गया था। इसलिए म्युजियम व पुस्तकालय को सौंप देना ही उचित लगा ताकि उस युग और साहित्य को लेकर शोध-कार्य करनेवाले लोगों या आम जिज्ञासुओं को सारी चीजें सहजता से उपलब्ध हो सकें। बनारस व शिवपूजन बाबू से संबद्ध कोई उल्लेखनीय घटना पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि सन् 1933 में नागरी प्रचारिणी सभा के परिसर में आचार्य द्विवेदी का अभिनंदन हुआ लेकिन इसके निकट कालभैरव क्षेत्र में रहते हुए भी बाबूजी इसमें समिम्मलित नहीं हो सके। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को तैयार करने में उन्होंने लम्बा समय व्यतीत किया था व तीन माह तक बनारस-इलाहाबाद की दौड़ लगाते रहे, किंतु ऐन इससे संबंधित समारोह के समय ही मेरे अग्रज आनंदमूर्ति को चेचक हो गया। समारोह के दिन तो ऐसी हालत हो गई कि बाबूजी के लिए वहां से क्षणभर भी हटना संभव न था। उस समय चेचक का बड़ा प्रकोप था, कम ही पीडि़तों की जान बच पाती थी। समारोह समाप्ति के बाद रायकृष्ण दास व मैथिलीशरण गुप्त घर आए और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रेषित लिफाफा बाबूजी को दिया। इसमें उन्होंने दुर्गा सप्तशती का मंत्र लिख भेजा था। इसे पीडि़त के सिरहाने रखने का निर्देश था। ऐसा ही किया गया। आनंदमूर्ति जल्दी ही स्वस्थ हो गए

Monday, March 15, 2010

उम्मीदों और नये संकल्पों का दिन नवसंवत्सर - HindiLok.com

उम्मीदों और नये संकल्पों का दिन नवसंवत्सर

डॉ० रवीन्द्र नागर

संसार में सभी नववर्ष का स्वागत और हार्दिक अभिनन्दन अपने-अपने ढंग से करते हैं। भारत में एवं विदेशों में संवत्सर को अत्यन्त उत्साह, नवीन संकल्प एवं आशा के साथ मनाते हैं।

संवत्सर का शुभारंभ वैज्ञानिक और प्राकृतिक ढंग से हुआ है। महाराजा विक्रमादित्य ने भारत-भूमि को विदेशियों से मुक्त करने के पश्चात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से इस संवत्सर को प्रारंभ किया, इसलिए इसे विक्रम संवत्सर कहते हैं। इस वर्ष २०६७ वाँ संवत्सर है, जो 16 मार्च से आरंभ हो रहा है। यह दिन सृष्टि का आदि दिन भी है। सतयुग इसी दिन से प्रारंभ हुआ था। इसी दिन भारत में कालगणना का प्रारम्भ हुआ था। ब्रह्म पुराण में कहा गया है –

चैत्रे मासि जगत् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि।
शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति॥

अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपद को सूर्योदय होने पर पहले ब्रह्मा ने जगत की सृष्टि की थी। उन्होंने प्रतिपद को प्रवरा तिथि भी घोषित किया था।

तिथीनां प्रवरा यस्माद् ब्रह्मणा समुदाहृता।
प्रतिपद्यापदे पूर्वे प्रतिपत् तेन सोच्यते॥

ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि का आरंभ किया, उस समय इसको प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि सूचित किया था। सचमुच यह प्रवरा है भी। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और सांस्कृतिक आदि बहुत-से महत्व के कार्य आरम्भ किये जाते हैं। इसमें संवत्सर का पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, वर्षेश का फल-पाठ आदि अनेक लोक-प्रसिद्ध और पवित्र कार्य होते हैं। इसी दिन मत्स्यावतार हुआ था।

कृते च प्रभवे चैत्रे प्रतिपच्छुभफल पक्षगा।
मत्स्य रूप कुमार्याच अवतीर्णो हरिः स्वयम्॥

मान्यता है कि इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने दक्षिण प्रदेश को बालि के अत्याचारों से मुक्त किया था। इससे इसे स्वतन्त्रता का दिन माना जाता है। ध्वजारोहण की प्रथा इसी का प्रतीक है। संवत्सर की प्रथम तिथि को पर्व रूप में मनाने की प्रथा बहुत प्राचीन है। अथर्ववेद में कहा गया है –

संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वां त्र्युपास्महे।
सा न आयुष्मती प्रजा रायस्पोषणे संसृज॥

संवत्सर की प्रतिमा स्वरूप हम जिस प्रभु की उपासना करते हैं, वह हमें दीर्घायु वाली प्रजा और धन से युक्त करे। शतपथ ब्राह्मण और विविध पुराणों में भी इसका उल्लेख है। तदनुसार इस संवत्सर के प्रारंभ काल से ही भारतीय सर्वत्र संवत्सर महोत्सव मनाते हैं। उत्सव चन्द्रिका नामक ग्रंथ में लिखा है –

प्राप्ते नूतन वत्सरे प्रति गृहं कुर्याद् ध्वजारोपणम्।
स्नानं मंगलमाचरेत् द्विज वरैः साकं सुपूजोत्सवैः॥
देवानां गुरू योषितां च विभवालंकार वस्त्रादिभिः।
संपूज्यो गणकः फलं च श्रुणुयात् तस्माच्च लाभप्रदम्॥

अर्थात नूतन वर्ष आने पर प्रत्येक घर में ध्वजारोहण, स्नान, मंगल, पूजन, उत्सव आदि करना चाहिए। देवताओं का पूजन और बड़े लोगों का सत्कार होना चाहिए। विद्वानों से संवत्सर का फल जानना चाहिए। अपने घर को तोरण वन्दनवार से सजाकर मंगल कार्य आरम्भ करना चाहिए। नववर्ष वासंतिक नवरात्र का भी पहला दिन है, अतः कलश-स्थापन आदि किया जाता है।

श्रद्धालु नूतन वर्ष का फल , राशि फल सुनते हैं। मिट्टी के घड़े, सुराही आदि शीतल जल के उपयोग के निमित्त देते हैं। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नीम की पत्ती के साथ मिश्री मिलाकर उसके भक्षण का भी विधान है। आयुर्वेद के अनुसार वसंत ऋतु में होने वाली व्याधियों के शमन के लिए ये वस्तुएँ बहुत गुणकारिणी हैं। ग्रीष्म के रक्तज विकारों की शान्ति के लिए तो ये बहुमूल्य औषधियाँ हैं।
भारतीय संस्कृति समन्वय और अनेकता में एकता की पक्षधर है। संवत्सर को पूरे देश में भिन्न-भिन्न नामों से मनाया जाता है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्णाटक आदि राज्यों में इसे गुड़ी पड़वा के नाम से जाना जाता है।

प्रातः उठकर भगवान की अर्चना, बड़ों को प्रणाम और सभी को अभिनन्दन करने के बाद घर के बाहर एक ध्वजा और नवीन वस्त्र की पताका लगाने का विधान है। मिश्री एवं नीम की पत्तियाँ परिवार के सदस्यों के साथ भक्षण की विधि है। इसका भाव यह है कि पूरे वर्ष में हम मीठी-कड़वी, सफलता-असफलता, लाभ-हानि, यश-अपयश सब बातों को सहन करने के लिए तैयार रहें। द्वार एवं चौराहों पर रंगोली बनायी जाती है।

आन्ध्र प्रदेश में इसे उगादि के नाम से जाना जाता है। उगादि का अर्थ है युगादि। युग अर्थात वर्ष का आदि-प्रथम दिवस। भिन्न-भिन्न पदार्थों के साथ भगवान को प्रणाम करने का और सबको अभिवादन करने की परंपरा है। घर के बाहर तुलसी-पूजा की जाती है। तमिलनाडु में इस दिन को वर्षापिरप्पु कहते हैं। भगवान की आराधना कर नारियल तथा ऋतु की वस्तुएँ समर्पित की जाती हैं। बहनें घर के बाहर सात रंगों से अल्पना बनाकर नववर्ष का स्वागत करती हैं। केरल में इस दिन को विषु कहते हैं। केले के वृक्ष और विभिन्न फलों से नववर्ष का स्वागत किया जाता है। घर के सदस्य मिलकर वनस्पति देवता की अर्चना करते हैं और पूरे परिवार के लिए मंगल-कामना करते हैं।

बंगाल में इसे नववर्षम् कहा जाता है। माँ काली की वंदना और संगीत के साथ नववर्ष के स्वागत की परम्परा है। असम में बिहु से नववर्ष का शुभारंभ माना जाता है। परिवार के सदस्य नवीन वस्त्र धारण करके सबका अभिनंदन करते हैं। परस्पर उपहार देते हैं। कश्मीर में इस दिन को नवरे के नाम से जाना जाता है। नवरे का अर्थ है नवीन दिवस। घर की महिलाएँ थाली में सूखे मेवों के साथ धूप-दीप रखकर परिवार के सभी सदस्यों को दिखाती हैं और भगवान से सभी के लिए स्वास्थ्य की कामनाकरती हैं।

उत्तर भारत में चैत्र नवरात्रि के इस प्रथम दिवस पर घट-स्थापन, पूजन-अर्चन की विधि संपन्न की जाती है। सम्पूर्ण भारत में संवत्सर नवीन आशा, उत्साह, सद्भाव, प्रेम, विनम्रता, सहजता और शालीनता का संचार करता है

क्या आपने मास्टर दा का नाम सुना है? - HindiLok.com

स्कूली जीवन में ही क्रांतिकारी विचारों की तरफ मुड़े सूर्या सेन शुरुआत में अनुशीलन नामक क्रांतिकारी दल से जुड़े और इसके बाद देश को आजाद कराने के लिए निकल पड़े। सूर्या सेन ने बतौर अध्यापक भी काम किया और उनका काम ब्रिटिश स्कूलों को भारतीय राष्ट्रीय स्कूलों में बदलना था। उन्होंने अपने पढ़ाने के अंदाज से छात्रों का इस कदर दिल जीता कि उनके साथ चलने के लिए छात्रों की लंबी फौज तैयार खड़ी हो गई। एक वक्त आया जब सूर्या सेन को लगा कि ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार का अब डटकर सामना करना होगा और इसके लिए हथियारों की जरुरत होगी तो उन्होंने कुछ साथियों के साथ फरवरी 1930 में ब्रिटिश तोपखाने से हथियार लूटने की योजना बनायी। इस घटना को अंजाम देने के बाद चिट्टगोंग से लगी क्रांति की अलख पूरे बंगाल में फैलनी लगी। आलम ये कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जिंदा या मृत पकड़ने के लिए उस वक्त दस हजार रुपए के इनाम की घोषणा की थी।

सूर्या सेन की पूरी जिंदगी में कई प्रेरक घटनाएं हैं। किस-किसका जिक्र करुं। चिट्टगोंग और पूरे बंगाल के लिए वो एक ऐसे हीरो हैं,जिनकी आज भी पूजा की जाती है। लेकिन, इसी सूर्या सेन को बंगाल के बाहर कितने लोग जानते हैं? उनकी शहादत से कितने लोग परीचित हैं? ये सवाल मुझे मथ रहा है। दरअसल, मैं अभी-अभी ‘चिटगोंग’ फिल्म की शूटिंग करके लौटा हूं। इस फिल्म में मैंने मास्टर दा उर्फ सूर्या सेन का किरदार निभाया है। इस शूटिंग को करते हुए बहुत आनंद आया। लेकिन, इसी दौरान इस सवाल ने उमड़ना शुरु किया कि ऐसा क्यों है कि सारा हिन्दुस्तान इतने बड़े क्रांतिकारी के योगदान से लगभग अनभिज्ञ है। जबकि पूरा बंगाल और बांग्लादेश उनकी पूजा करता है।
लेकिन, बात सिर्फ मास्टर दा के किरदार की नहीं है। भारतीय इतिहास में ऐसे किरदारों की लंबी फेहरिस्त है,जिन्हें रुपहले पर्दे पर फिर से जीवित किया जा सकता है। अच्छी बात यह है कि आज हर तरह की फिल्म के लिए बाजार तैयार है। वो दिन गए,जब निर्माता इन विषयों को हाथ लगाने से भी घबराते थे। आज हर नया विषय निर्माता-निर्देशक को लुभाता है क्योंकि उनका मानना है कि दर्शक अब नया देखना चाहते हैं। लेकिन, इस नए में मास्टर दा जैसे किरदार हों तो बात ही क्या।

हिन्दी फिल्मों पर अकसर इल्जाम लगता है कि वो युवा मस्तिष्क को बिगाड़ देते हैं। भटका देते हैं। लेकिन एक सत्य ये भी है कि आज फिल्में ही करोड़ों लोगों तक हिन्दी भाषा को लेकर जाती हैं। आज फिल्में ही भगत सिंह और मास्टर दा जैसे महापुरुषों के बारे में लोगों को सोचने पर मजबूर करती है। उम्मीद है कि चिटगोंग और मास्टर दा के बहाने लोग इस महान क्रांतिकारी के बारे में जानेंगे और फिर इस तरह की और भी फिल्में बनेंगी।

फिलहाल, मैं अपने निर्णय से बहुत खुश हूं कि मैंने मास्टर दा का किरदार निभाया। उनके किरदार को करते हुए बहुत कुछ सीखा है। उनको जानने की भरपूर कोशिश की है। और जब मैं दिल्ली लौटा हूं इस फिल्म की शूटिंग के बाद तो बिना सूर्या सेन उर्फ मास्टर दा के खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं।

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Monday, March 8, 2010

mahila vidheyak parit

आखिर महिला विधेयक बिल पारित हो ही गया .मानना पड़ेगा हमें इसके लिए अमरीकी महिलाओं से कम ही विरोध झेलना पड़ा अमेरिका में तो महिलाओं को केवल वोट डालने के अधिकार को लेने के लिए १८२० से लेकर १९४८ तक लड़ाई लड़नी पड़ी थी .हमने १३-१४ साल के संघर्ष से ही बिल पारित कर दिया . जय भारत

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