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Sunday, March 28, 2010

मुहावारोक्ति


रवि के होते नौ दो ग्यारह रूचि के तो हो गए पौ बारह 
छू मंतर हो गयी दुःख सारे हुई खत्म नकली ये प्यार का खेल 


खरी खोटी सुनाया जम के रूचि गिरगिट रवि का रंग बदल गया 
उसको तो किनारा करना था वह टाल-मटोल कर निकल गया


रूचि के दुनिया में बहार आयी आँखों का पर्दा सिमट गया 
उसे तजने को जो ठानी थी जीना उसका भी खुश्वार हुआ 


मेरी ये पंक्ति कविता नहीं ये मुहावरों का मेला है 
जो कोई गलती दिख जाये ठीक करें आप का स्वागत है 

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