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Saturday, January 22, 2011

मै नारी हूँ ....


अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
मै नारी हूँ ....
अस्मिता को बचाते  हुए 
धरती में समा जाती हूँ 
माँ- बहन इन शब्दों में 
ये कैसा कटुता 
है भर गया 
इन शब्दों में अपशब्दों के 
बोझ ढोते जाती हूँ 
पत्नी-बहू के रिश्तो में 
उलझती चली जाती हूँ 
अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
अपने गर्भ से जिस संतान को 
मैंने है जन्म दिया 
अपनी इच्छाओं की आहुति देकर 
जिसकी कामनाओं को पूर्ण किया 
आज उस संतान के समक्ष 
विवश हुई जाती हूँ 
अपने अस्तित्व  को ढूँढती हुई
दूर चली जाती हूँ 
नारी हूँ पर अबला नही 
सृष्टि की जननी हूँ मै 
पर इस मन का क्या करूँ 
अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख 
अस्तित्व छोडती जाती हूँ 

12 comments:

  1. बहुत अच्छा विश्लेषण नारी का

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  2. इन शब्दों में अपशब्दों के बोझ ढोती जाती हूँ ...दुखद
    मन की व्यथा को बांधा आपने शब्दों में !

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  3. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति , इसके अंदर नारी की पीड़ा भी है और नारी की सबला होने की अभिव्यक्ति भी ।

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  4. सृष्टि की जननी हूँ मै
    पर इस मन का क्या करूँ
    अपने से उत्पन्न सृष्टि के सम्मुख
    अस्तित्व छोडती जाती हूँ

    नारी की पीड़ा और शक्ति की भावपूर्ण अभिव्यक्ति..बहुत सुन्दर

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  5. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति

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  6. अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
    दूर चली जाती हूँ ....

    हृदयस्पर्शी पंक्तियां हैं। अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकारें।

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  7. इन शब्दों में अपशब्दों के बोझ ढोती जाती हूँ perfect lines ...really liked it

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  8. अस्तित्व को ढूंढती हुई दूर चली जाती हूँ............ सुन्दर लेखन!

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  9. बहुत बेहतरीन चित्रण...

    डा.अजीत
    www.shesh-fir.blogspot.com
    www.meajeet.blogspot.com

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  10. अपने अस्तित्व को ढूँढती हुई
    दूर चली जाती हूँ....
    behad achchi lagi.

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  11. dil ko choo lene wali rachna.
    behtar aur sundar bhi.

    shukriya thanks!!!!


    afsarpathan.blogspot.com

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