बस्तों के बोझ तले दबा हुआ बचपन
बसंत में भी खिल न पाया ये बुझा हुआ बचपन
बचपन वरदान था जो कभी अति सुन्दर
पर अब क्यों लगता है ये जनम - जला बचपन
अपनों से ही पीड़ित क्यों है आज बचपन
ये देन है किस सभ्यता का क्यों खो गया वो बचपन
वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
वो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना
वो सद्य खिले पुष्पों सा खिलना इठलाना
वो रह पर पड़े हुए पत्थरों से खेलना
कहाँ है वो बचपन जो छूटे तो पछताए
क्यों है वो परेशां ये बचपन छटपटाये
खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
ये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन
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Thursday, May 26, 2011
ये बचपन
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सही बात कही है आपने।
ReplyDeleteएक शे’र याद आ गया। सोचता हूं शेयर कर लूं ...
वक़्त से पहले ही पक जाती है कच्ची उम्रें
मुफ़लिसी नाम है बचपन में बड़ा होने का। ---- राजेश रेड्डी
बचपन कि आज कि त्रासदी को कहती अच्छी रचना
ReplyDeleteअब बचपन बचा ही कहां है....पढ़ाई का बोझ और उम्र से पहले समझदार होते बच्चे...
ReplyDeleteसुंदर भाव...
सुंदर भाव...
ReplyDeleteआज बचपन कि त्रासदी को कहती अच्छी रचना
खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
ReplyDeleteये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन.
सच्चाई से रूबरू कराती सुंदर रचना.
sahi vishay sahi aaklan
ReplyDeleteआपने सही बात उठाई है कविता द्वारा ...
ReplyDeleteग़ज़ल में अब मज़ा है क्या ?
kitne dukh ki baat hai .
ReplyDeleteदिल को छू लेने वाली एक सच्ची और अच्छी कविता, जिसे पढ़ कर मुझे भी लगता है कि समाज के ठेकेदारों से कहूँ -
ReplyDeleteमत छीनो बचपन किसी का,
तुम भी तो कभी बच्चे थे !
आज बन गए झूठ का पुतला ,
कल तुम भी तो सच्चे थे !
वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
ReplyDeleteवो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना
सुंदर रचना