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Thursday, May 26, 2011

ये बचपन



बस्तों के बोझ तले दबा हुआ बचपन
बसंत में भी खिल न पाया ये बुझा हुआ बचपन

बचपन वरदान था जो कभी अति सुन्दर
पर अब क्यों लगता है ये जनम - जला बचपन

अपनों से ही पीड़ित क्यों है आज बचपन
ये देन है किस सभ्यता का क्यों खो गया वो बचपन

वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
वो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना

वो सद्य खिले पुष्पों सा खिलना इठलाना
वो रह पर पड़े हुए पत्थरों से खेलना

कहाँ है वो बचपन जो छूटे तो पछताए
क्यों है वो परेशां ये बचपन छटपटाये

खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
ये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन




10 comments:

  1. सही बात कही है आपने।
    एक शे’र याद आ गया। सोचता हूं शेयर कर लूं ...

    वक़्त से पहले ही पक जाती है कच्ची उम्रें
    मुफ़लिसी नाम है बचपन में बड़ा होने का। ---- राजेश रेड्डी

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  2. बचपन कि आज कि त्रासदी को कहती अच्छी रचना

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  3. अब बचपन बचा ही कहां है....पढ़ाई का बोझ और उम्र से पहले समझदार होते बच्चे...
    सुंदर भाव...

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  4. सुंदर भाव...
    आज बचपन कि त्रासदी को कहती अच्छी रचना

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  5. खिलने से पहले ही मुरझाता ये बचपन
    ये शोषित ये कुंठित ये अभिशप्त बचपन.

    सच्चाई से रूबरू कराती सुंदर रचना.

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  6. दिल को छू लेने वाली एक सच्ची और अच्छी कविता, जिसे पढ़ कर मुझे भी लगता है कि समाज के ठेकेदारों से कहूँ -
    मत छीनो बचपन किसी का,
    तुम भी तो कभी बच्चे थे !
    आज बन गए झूठ का पुतला ,
    कल तुम भी तो सच्चे थे !

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  7. वो नदियों सा इठलाना चिड़ियों सा उड़ना
    वो तितलियों के पीछे वायु वेग सा दौड़ना

    सुंदर रचना

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