काशी नगरी में तैयार हो रहा साहित्य के शिव का रचना समग्र
श्याम बिहारी श्यामल, वाराणसी इसे इतिहास का पुनरावृत्त होना ही कहेंगे कि जिस काशी में बैठकर हिन्दी साहित्य के शिव कहे जाने वाले बाबू शिवपूजन सहाय ने एक से एक अमर कृतियों का संपादन-कार्य किया था, वहीं कोई आठ दशक बाद आज स्वयं उनकी रचनाओं और उनसे जुड़े तमाम साहित्यिक संदर्भो को शिवपूजन सहाय समग्र के नाम से अंतिम रूप दिया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि उनके हाथों संशोधित-संपादित ऐसी अमर कृतियों में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का उपन्यास रंगभूमि भी शामिल है तो जयशंकर प्रसाद का उपन्यास तितली भी। इसी सूची में वह प्रतिष्ठापूर्ण आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ भी सम्मिलित है जो संपादकाचार्य आचार्य द्विवेदी को काशी-नगरी में सन् 1933 में हिन्दी संसार की ओर से समारोहपूर्वक समर्पित किया गया था। यह विशाल ग्रंथ इस रूप में भी उल्लेखनीय है कि इसके मुद्रण के लिए नागरी प्रचारिणी सभा ने इंग्लैंड से विशेष प्रकार का कागज मंगवाया था जिसमें दीमक या कीड़े लगने की आशंका नगण्य होती है। समग्र को अंतिम रूप देने में जुटे प्रो. मंगलमूर्ति बताते हैं कि यह ग्रंथावली अब तक प्रकाशित तमाम रचनावलियों से इस मायने में भिन्न होगी क्योंकि इसमें केवल नामित रचनाकार यानी शिवजी से संबंधित ही नहीं बल्कि द्विवेदीयुगीन व उत्तर द्विवेदीयुगीन ऐसे तमाम साहित्यकारों की दुर्लभ व अब तक अप्रकाशित तस्वीरें व उनसे जुड़ी सामग्री होगी, जो शिवजी के संपर्क में आए थे। समग्र स्वाभाविक रूप से प्रदीर्घ यानी दस खंडों में होगा। इसमें शिवजी को लिखे उस समय के प्रमुख साहित्यकारों व प्रतिनिधि व्यक्तित्वों के तकरीबन दो हजार पत्र शामिल किए गए हैं जबकि स्वयं उनके द्वारा दूसरों को लिखी चिट्ठियां भी पांच सौ की संख्या में उपलब्ध कराई गई हैं। उन्होंने बताया कि शिवजी के संग्रह के ऐसे पत्रों की कुल संख्या करीब आठ हजार है जिनमें से चुनकर उक्त पत्र निकाले गये हैं। बिहार के मगध विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे प्रो.मंगलमूर्ति शिवजी के कनिष्ठ पुत्र हैं व नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद काशी में सिगरा क्षेत्र में नगर निगम के पास रह रहे हैं। वह अवकाशग्रहण के बाद तीन साल तक यमन गणराज्य में भाषा विज्ञान के अतिथि प्राध्यापक भी रह चुके हैं। फिलहाल यहां पिछले कई वर्षो से समग्र के कार्य में जुटे हुए हैं। ज्ञातव्य है कि शिवजी पिछली शताब्दी के आरंभिक दौर में हिन्दी के वरेण्य संपादकाचार्यो में अग्रणी रहे। उन्होंने हिन्दी के अनेक प्रमुख साहित्यकारों ही नहीं, प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा का भी संशोधन किया था। भारत सरकार ने सन् 1960 में उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया था। उनके निधन के पैंतीस वर्षो बाद 1998 में केंद्रीय संचार मंत्रालय ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया जबकि इससे पहले फिल्म डिवीजन बंबई व दूरदर्शन दिल्ली ने उनके जीवन और साहित्य पर केन्दि्रत चार वृत्त-चित्र भी निर्मित और प्रसारित किए। काशी से लगाव की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि कलकत्ता से मतवाला मंडल छोड़कर आने के बाद शिवजी ने भैरवनाथ क्षेत्र में दंडपाणि भैरव मंदिर के निकट डेरा डाला था। यहीं सालभर बाद उनकी दूसरी पत्नी का निधन हुआ। बाद में बनारस से ही तीसरा विवाह हुआ। बारात छपरा के मसरख गई थी। वे 1933 तक लगातार यहीं रहे व इसके बाद लहेरियासराय चले गए। यह भी संयोग ही रहा कि शिवजी ने सबसे पहले 1913 में अपने जीवन की पहली नौकरी बनारस कचहरी में ही कातिब यानी नकलनबीस के तौर शुरू की थी किंतु कुछ महीने बाद ही अध्यापक की मनोनुकूल नौकरी मिल जाने पर आरा चले गए थे। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कि शिवजी ने प्रसाद की महान काव्यकृति कामायनी का संशोधन किया था या नहीं, यह अब भी शोध का विषय है। इस बात की चर्चा तो शुरू से की जाती रही है किंतु उन्हें अब तक इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है जबकि तितली (प्रसाद का उपन्यास) के संशोधित मूल पृष्ठ तो अवश्य उपलब्ध हैं, जिनमें प्रसाद व उनकी हस्तलिपियां हैं। ऐसे पृष्ठ समग्र में शामिल किए जा रहे हैं। प्रो.मंगलमूर्ति ने बताया कि शिवजी के संग्रह की महत्वपूर्ण किताबें व पत्र-सामग्री दिल्ली के नेहरू मेमोरियल म्युजियम को सौंप दिए गए हैं जबकि शेष सामग्री बक्सर के राजकीय पुस्तकालय को। इस संग्रह में उस समय के ज्यादातर साहित्यकारों की वैसी पुस्तकें भी सम्मिलित हैं जो वे लोग छपने के साथ ही हस्ताक्षर-पूर्वक शिवजी को समर्पित कर भेजा करते थे। ऐसी सामग्री का संग्रह विशाल व बहुमूल्य है जिसका संरक्षण जरूरी है। इन्हें घर में संभालना कठिन कार्य हो गया था। इसलिए म्युजियम व पुस्तकालय को सौंप देना ही उचित लगा ताकि उस युग और साहित्य को लेकर शोध-कार्य करनेवाले लोगों या आम जिज्ञासुओं को सारी चीजें सहजता से उपलब्ध हो सकें। बनारस व शिवपूजन बाबू से संबद्ध कोई उल्लेखनीय घटना पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि सन् 1933 में नागरी प्रचारिणी सभा के परिसर में आचार्य द्विवेदी का अभिनंदन हुआ लेकिन इसके निकट कालभैरव क्षेत्र में रहते हुए भी बाबूजी इसमें समिम्मलित नहीं हो सके। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ को तैयार करने में उन्होंने लम्बा समय व्यतीत किया था व तीन माह तक बनारस-इलाहाबाद की दौड़ लगाते रहे, किंतु ऐन इससे संबंधित समारोह के समय ही मेरे अग्रज आनंदमूर्ति को चेचक हो गया। समारोह के दिन तो ऐसी हालत हो गई कि बाबूजी के लिए वहां से क्षणभर भी हटना संभव न था। उस समय चेचक का बड़ा प्रकोप था, कम ही पीडि़तों की जान बच पाती थी। समारोह समाप्ति के बाद रायकृष्ण दास व मैथिलीशरण गुप्त घर आए और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा प्रेषित लिफाफा बाबूजी को दिया। इसमें उन्होंने दुर्गा सप्तशती का मंत्र लिख भेजा था। इसे पीडि़त के सिरहाने रखने का निर्देश था। ऐसा ही किया गया। आनंदमूर्ति जल्दी ही स्वस्थ हो गए
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