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Monday, July 5, 2010

कागज़ कलम लिए............

कागज़ कलम लिए बैठा हूँ सद्य 
आषाड़ में मुझे लिखना है बरखा का पद्य

क्या लिखूं क्या लिखूं समझ ना पाऊँ रे 
हताश बैठा हूँ और देखूं बाहर रे 

घनघटा सारादिन नभ में बादल दुरंत 
गीली-गीली धरती चेहरा सबका चिंतित 

नही है काम घर के अन्दर कट गया सारादिन 
बच्चों के फुटबोल पर पानी पड़ गया रिमझिम 

बाबुओं के चहरे पर नही है वो स्फूर्ति 
कंधे पर छतरी हाथ में जूता किंकर्तव्य विमूढ़ मूर्ती 

कही पर है घुटने तक पानी कही है घना कर्दम 
फिसलने का डर है यहाँ लोग गिरे हरदम 

मेढकों का महासभा आह्लाद से गदगद 
रातभर  गाना चले अतिशय बदखद

श्री सुकुमार राय द्वारा रचित काव्य का काव्यानुवाद  

7 comments:

  1. अच्छी कविता! बहुत खूब!


    बाहर मानसून का मौसम है

    बाहर मानसून का मौसम है,
    लेकिन हरिभूमि पर
    हमारा राजनैतिक मानसून
    बरस रहा है।
    आज का दिन वैसे भी खास है,
    बंद का दिन है और हर नेता
    इसी मानसून के लिए
    तरस रहा है।


    मानसून का मूंड है इसलिए
    इसकी बरसात हमने
    अपने ब्लॉग
    प्रेम रस
    पर भी कर दी है।

    राजनैतिक गर्मी का
    मज़ा लेना,
    इसे पढ़ कर
    यह मत कहना
    कि आज सर्दी है!

    मेरा व्यंग्य: बहार राजनैतिक मानसून की

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  2. बहुत ही सुंदर रचना है आपकी. आपको मेरी तरफ से बधाई

    ReplyDelete
  3. बहुत ही ज़बरदस्त कविता है और उसका अनुवाद भी बहुत ही सुन्दर किया है।

    ReplyDelete
  4. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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