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Wednesday, September 1, 2010

पर्वत कहे

कभी  मै  भी  था  हरा  भरा 
मुझमे था कई जीवो का बसेरा 
नदियाँ,झरना ,पेड़ ,पौधे  
इन सबसे ही था मै भरा 


पर इंसानों को ये न भाया 
जीवो को मैंने है क्यों पाला
पशुओं की पशुता वो सह ना पाए 
पशुओं की भाषा समझ न पाए 


कटते चले गए जंगल  पहाड़-पर्वत 
सूखी नदियाँ ,झरने  अरे!ये किसकी आह्ट
ओ हो! ये तो इन्सां है जो बुद्धजीवी है कहलाता 
और हरे रंग को पीले में परिवर्तित है कर सकता 


आखिर उसकी बुद्धि ने ये रंग दिखाया 
हरी-भारी हरियाली को पीले रेगिस्तान में बदल डाला 
न रहे पशु-पक्षी न ही जानवर 
अब इन्सां भी नही आते जो गए थे ये काम कर

उन्हें अब क्या मिलेगा इस मरूभूमि में
उनको चाहिए एक और हरियाली
जिसे बदलना है पीले रेगिस्तान में
गिरगिट इन्सां को रंग बदलना आता है

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