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Friday, April 30, 2010

शिव तान्डव स्तोत्रम्

जटाटवीगलज्ज्व्ल प्रवाह पावितस्थले गलेव-लम्ब्य-लम्बिताम्-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयम् चकार-चन्ड-तान्डवम् तनोतुनःशिवःशिवम्

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमुर्धनि
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरेरतिःप्रतिक्षणम् मम

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फ़ुरद्दिगन्तसन्तति प्रमोद मानमानसे
कृपा कटाक्ष धोरिणि निरुद्धदुर्धरापदिक्वचिद्दिगम्बरेमनोविनोदमेतुवस्तुनि

जटा भुजंग पिङ्गलस्फ़ुरत्फ़णामणिप्रभा-कदम्ब-कुंकुमद्रलप्रलिप्त-दिग्व-धूमुखे
मदान्ध-सिन्धुरसफुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोद्मद्भुतम् विभर्तु-भूत-भर्तरि

सहस्र-लोचनप्रभृत्य-शेषलेखशेखर-प्रसून-धूलि-धोरिणि-विधू-सराङ्घ्रि-पीठ्भु
भुजङ्गराजमालया-निबद्ध-जाट-जूटक:श्रिये-चिराय-जायताम्-चकोर-बन्धु-शेखरः

ललाट-चत्वरज्ज्वलद्धनन्जयस्फुलिन्गभानिपीतपन्चसायकम् नमन्निलिम्पनायकम्
सुधामयूखलेखयाविराजमानशेखरम् महाकपालि सम्पदे शिरोजटालमस्तुनः

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनन्जयाहुतिकृतप्रचन्डपङ्चसायके
धरा-धरेन्द्र-नन्दिनि-कुचाग्र-चित्र-पत्रक-प्रकल्प-नैक-शिल्पिनि-त्रिलोचने-रतिर्मम

नवीन-मेघ-मंडली-निरुद्ध-दुर्धरस्फुरत्कुहूनिशीथनीतमःप्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः
निलिम्प-निर्झरी-धरस्त-नोतु-कृत्ति-सिन्धुरःकला-निधान-बन्धुरःश्रियम्जगद्धुरन्धरः

प्रफुल्ल-नील-पंकज-प्रपंच-कालिमप्रभावलम्बि-कन्ठ-कन्दलि-रुचि-प्रबद्ध-कन्धरम्
स्मरच्छिदम्,पुरच्छिदम्-भवच्छिदम्-मखच्छिदम-गजच्छिदान्धकच्छिदम्-तमन्त-कच्छिदम्-भजे

अखर्व-सर्व-मंगला-कला-कदंब-मन्जरी-रसप्रवाह-माधुरी-विजृम्भणाभधुव्रतम्
स्मरान्तकम्-पुरान्तकम्-भवान्तकम्-मखान्तकम्-गजान्तकान्धकान्तकम्-तमन्तकान्तकम् भजे

जयद्-वदभ्र-विभ्रम-भ्रमद्भुजंगमश्वसस्द्विनिर्गमत्स्मरत-फुरत्-कराल-भाल-ह्व्यवाट्
धिमिद्धिमिद्धिमिद्धनन्मृदंग-तुंग-मंगल-ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित-प्रचन्ड-तान्डव-शिवः

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकस्रजोर्गरिश्ठरत्नलोष्ठयोर्सुह्रिद्विपक्षपक्षयो
तृणारविन्दुचक्षुसोप्रजामहीमहेन्द्र्योसमप्रवृत्तिकःकदासदासुखीभजाम्यहम्

कदा-निलिम्प-निर्झरी-निकुन्ज-कोटरे-वसन्-विमुक्त-दुर्मतिःसदा-सिरःस्थमन्जलिम्वहन्
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकःशिवेतिमन्त्रमुच्चरण कदासुखी भवाम्यहम्

इमम् ही नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमम् स्तवम् पठन्स्मरण् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसन्ततम्
हरेगुरौसुभक्तिमाशुयातिनान्यथागतिम् विमोहनम् हि देहिनाम् सुशंकरस्य चिन्तनम्

पूजावसानसमयेदशवक्त्रगीतम् यःशम्भू पूजनपरम् पठति प्रदोषे
तस्य-स्थिराम् रथगजेन्द्र-तुरंग-युक्ताम् लक्ष्मीम् सदैव सुमुखीम्
प्रददाति शम्भुः

इति श्री रावण कृत शिव तान्डव स्तोत्रम् सम्पूर्णम्





Thursday, April 29, 2010

निविड़ घन अँधेरे में.............

निविड़ घना अँधेरे में जल रहा है ध्रुवतारा
रे मेरे मन इन पत्थरों में  न होना दिशाहारा
विषादों में डूबकर गुनगुनाना बंद मत कर
अपने जीवन को सफल कर ले तोड़कर मोहकारा
रखना बल जीवन में चिर-आशा हृदय में
शोभायमान इस धरती पर बहे प्यार कि धारा
संसार के इस सुख-दुःख में चलते रहना हँसते हुए
हृदय में सदा भर के रखना उनका सुधा धारा

Wednesday, April 28, 2010

तोडती पत्थर


पत्थरों को तोडती वो अधमरी सी बुढ़िया 
बन गयी  है वो आज बेजान सी गुडिया 
कभी वो भी रहती थी महलों के अन्दर 
कभी थी वो अपने मुकद्दर का सिकंदर 
असबाबों से था भरा उसका भी महल 
नौकरों और चाकरों का भी था चहल पहल 
बड़े घर के रानी का राजा था दिलदार 
नहीं थी कमी कुछ भी भरा था वो घरबार 
किलकारियां खूब थी उस सदन में 
अतिथि का स्वागत था भव्य भवन में 
पूरे शहर में था ढिंढोरा इनका 
गरीब जो आये न जाए खाली हाथ 
शहर के धनिकों में था इनका स्वागत 
शहर बड़े लोग थे इनसे अवगत 
पर चाहो हमेशा जो होता नहीं वो 
कठीनाइयों से भरे दिन आ गए जो 
व्यवसाय की हानि सम्भला न उनसे 
बेटे-बहू ने रखा न जतन से 
बड़े घर के राजा न सहा पाए वो सब दिन 
वरन कर लिया मृत्यु को पल गया छिन 
बुढ़िया बेचारी के दिन बद से बदतर 
गर्भधारिणी माँ को किया घर से बेघर 
करती वो क्या कोई चारा नहीं था 
इस उम्र में कोई सहारा भी नहीं था 
मेहनत मजदूरी ही थी उसकी किस्मत 
लो वो आ गयी राह पर तोडती पत्थर 

Sunday, April 25, 2010

विश्व जब है निद्रा- मग्न गगन है अन्धकार

विश्व जब है निद्रा- मग्न गगन है अन्धकार
कौन ही जो मेरे वीणा के तार पर छेड़ा है झंकार

नयनों से नींद लिया हर उठ-बैठूं शयन छोड़कर
आँखे बिछाए प्रतीक्षा करूँ उसे न देख पाऊँ  
मन में मचा है हाहाकार

गुन-गुन-गुन-गुन गीत से प्राण है भर गया
न जाने कौन सा विपुल वाणी व्याकुल स्वर से बजाया
कौन सी ये वेदना समझ न आये
अश्रुधारा से भर गया हृदय ये
किसे मैं पहनाओं ये मेरा कंठहार

बैसाख


आँखों में मेरी है तृष्णा 
और ये तृष्णा है संपूर्ण हृदय में 
मैं हूँ वृष्टि-विहीन वैसाख के दिन 
संतप्त प्राण लगा है जलने 

तपता वायु से आंधी उठाता 
मन को सुदूर शून्य कि ओर दौड़ाता
अवगुंठन को उड़ाता , मै हूँ वैसाख के दिन तपता- तपाता 

जो फूल कानन को करता था आलोकित 
वो फूल सूखकर हो गया कला कलुषित(हाय)

झरना को बाधित है किसने किया 
निष्ठुर  पाषाण से अवारोधित किसने किया 
दुःख के शिखर पर किसने है बिठाया 
मैं हूँ बैसाख  के दिन तपता- तपाया 

Saturday, April 24, 2010

चाहे कुछ भी कहे लोग

ये तप्त- कान्चन सी काया तेरी
ये स्वच्छ  निर्मल सा मन तेरा
अधर- धरा कि ये रहस्य हंसी
तुम ही तुम हो कोई नहीं ऐसा

तुम बस गयी हो मेरे हृदयतल में
मैं रम गया हूँ बस तुम ही तुम में
छोड़ कर न जाना  भुला न देना मुझे
चाहता हूँ स्थित हो जाऊं तुम्हारे अंतर्मन  में

मैं चाहूँ तुम्हे टूटकर कब से
धरती और आकाश मिलते है क्षितिज में जब से
कई विभावरी गयी जागरण से
कहीं तुम आओ और मैं न जाग पाऊँ नींद से

मेरी यह दशा देख तुम न इतराना
मेरी इस हालत पर तुम न रहम खाना
जब तुमको लगे कि मैं हूँ तुम्हारे योग्य
मैं अवश्य आऊँगा चाहे कुछ भी कहे लोग

Thursday, April 22, 2010

मेरी वीणा ने कौन ने ये कौन सा सुर बजाया

मेरी वीणा ने  ये कौन सा सुर बजाया ये नव चंचल छंद क्या है जो मन को है भाया
ये कौन अशांत चंचल तरुण है आया ये किसका वसनांचल उड़-उड़ के छाया

ये कौन है जिसने अलौकिक नृत्य है किया ये  वनांतर अधीर आनंद से मुखरित हुआ
मेरी वीणा ने  ये कौन सा सुर बजाया ये कौन जो मेरे में को भाया

इस अम्बर प्रांगन में निस्वर मंजिर गूंज रही है
अनसुनी सी ताल पर पल्लव पुंज करताली बजा रही है

ये किसके पदचाप सुनाने की है  आशा
 त्रिन-त्रिन को है अर्पण उस पदचाप की भाषा
ये कौन से  वन-गंध से समीरण है बंधनहारा

Tuesday, April 20, 2010

गीता का सार

                       यदि हम गीता को पुण्य भूमि भारत वर्ष की वांग्मय आत्मा कहें तो निश्चय ही अत्युक्ति न होगी . अपौरुषेय वेद-चतुष्टय के  बाद गीता ही ऐसा ग्रन्थ है जिसकी प्रमाणिकता और लोकप्रियता का प्रभाव भारतीय जनमानस पर अत्यधिक है . गीता की महत्ता इससे और भी बढ़ जाती है जब हम देखते है की प्राचीन भारत के शंकर ,रामानुज सदृश आचार्य से लेकर अर्वाचीन भारत के तिलक,अरविन्द तक ने गेट पर भाष्य, टीका, विवरण,व्याख्या,विमर्श आदि का प्रणयन किया और वैसा करने में अपनी-अपनी लेखनी को सार्थक समझा . जैसे सप्तशती चंडी को मार्कंडेय पुराण का एक क्षुद्र अंश  होते हुए भी , एक पृथक ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है ,ठीक उसी प्रकार सप्तशती गीता भी शतसहस्री संहिता महाभारत का एक क्षुद्रातीक्षुद्र अंश होते हुए भी एक पृथक ग्रन्थ के रूप में स्वीकृत है.गीता  आज से  कितने सहस्र वर्ष पूर्व गाये गए थे - यह ऐतिहासिकों की खोज का विषय है,किन्तु उन शाश्वत उदार प्राणियों का प्रभाव भारतीय लोक मानस पर आज भी उतना भी बना हुआ है जितना अतीत में था .गीता की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि भारत भूमि के जो नागरिक पूर्णतया निरक्षर भी है वो भी गीता नाम के दो अक्षरों से अवश्यमेव परिचित है और उसकी शाश्वत उदार वाणियों के मूल भावों की न्यूनाधिक धारणा भी रखती है .
    जैसा कि सर्वविदित है प्राचीन आचार्यों ने आर्यों को मुख्यत: ४ वर्णों में विभाजित किया है -ब्राहमण , क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र .
इन चार में से  प्रथम तीन वर्ण को द्विजाति व चतुर्थ को एकजाति कहा जाता है . शास्त्र कारों ने प्रत्येक वर्ण के लिए पृथक-पृथक कर्मनुशासन भी किया है . क्षत्रिय वर्ण के लिए कर्मविधान करते हुए गीताकार ने कहा है -
शौर्यं तेजो धृतिर्दक्ष्यम   युद्धे चाप्यपलायनम .
दान्मीश्वर भावश्च  क्षात्रं कर्म स्वभावधम

शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध से अपलायन, दान और ईश्वरभाव-ये सात क्षत्रिय वरना के लिए स्वभावध कर्म है 

गीताकार के पूर्वोधृत वचन पर यदि हम विश्लेष्णात्मक दृष्टि डाले तो देखेंगे कि छात्रवृत्ति के साथ योद्धावृत्ति का अविच्छेद्य सम्पर्क माना गया है  . शौर्यतेज,धृति (अल्पाधिक जय-पराजय में धैर्य न खोना ), दाक्ष्य (रणनीति निपुणता )युद्ध से अपलायन , दाम ( शत्रु वर्ग के प्रति प्रयोज्य साम,दाम,दंड ,भेद चतुर्विध राजनयिक उपायों में एक )और ईश्वरभाव (प्रभुता कि शक्ति )ये सातों क्षात्रवृत्तियां अल्प या अधिक अथवा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से योद्धावृत्ति से संपृक्त है ही . आज जब हम भारतवर्ष के कतिपय राजनयिक और सांस्कृतिक नेतायों को यह कहते हुए पाते है युद्ध या योद्धा मानव जीवन के लिए एक अनावश्यक तत्व है,स्वभावत: हमाती दृष्टि पूर्वोक्त गीतोक्ति के प्रति बलात आकृष्ट हो जाता है . एक ओर तो गीतकार कहते है कि मानव जाति में केवल एक वर्ण विशेष केवल युद्ध या योद्धावृत्ति के लिए ही उत्पन्न हुआ है,दूसरी ओर आधुनिक नेता युद्ध या योद्धावृत्ति को मानव जाति के लिए एक अनावश्यक तत्व मानते है .वसे तो जब कभी नेतागण मानवजाति के प्रति युद्ध या योद्धावृत्ति कि विपज्जनता के विषय में बोलते है तब वे बातें तो बहुत ही पुष्पित , पल्लवित एवं सुन्दर प्रतीत होता है किन्तु यदि हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विचार करने का प्रयास करें तो देखेंगें कि मानव सृष्टि के आदिकाल से लेकर आजतक मानव जाति के अस्तित्व को जिस तत्वा ने सुरक्षित रखा है , उसका नाम है युद्ध या संग्राम और इस युद्ध या संग्राम के वांग्मय तत्व  को जिसने रूप दिया है , उसका नाम है योद्धा या सैनिक ! विश्व का अतीत इतिहास योद्धाओं या सैनिकों का ही इतिहास रहा है , और यदि हम इसी  अतीत इतिहास के आधार पर विचार करें तो यह निश्चित है कि विश्व का भावी इतिहास भी सैनिक या योद्धाओं का ही इतिहास होगा और होकर रहेगा .
          पोर्वोक्ता गीतोक्ति से इतना तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है युद्धावृत्ति या योद्धावृत्ति क्षात्र वर्ण के लिए क्षात्र धर्मं का एक अनिवार्य अंग है .

Sunday, April 18, 2010

मर जाउंगी सूख-सूख कर

हृदय मेरा कोमल अति सहा न पाए भानु ज्योति
प्रकाश यदि स्पर्श  करे मरे हाय शर्म से
भ्रमर भी यदि पास आये भयातुर आँखे बंद हो जाए
भूमिसात हम हो जाए व्याकुल हुए शर्म से
कोमल तन को पवन जो छुए तन से फिर पपड़ी सा निकले
पत्तों के बीच तन को ढककर खड़े है छुप - छुप के
अँधेरा इस वन में ये रूप की हंसी उडेलूंगी मै सुरभि राशि
इस अँधेरे वन के अंक में मर जाउंगी सूख-सूख कर

हल्ला बोल


पथिक तू चलते रहना थक मत जाना 
पथिक रे मुखरित होना चुप मत रहना 
पथिक हाय क्यों तू गुमसुम डर मत है हम 
पथिक तू नहीं अकेला तुझे है समर्थन 

तू बस इतना कर दे आवाज़ उठा ले 
सोते हुए को झट जगा दे 
जो है भ्रष्टाचारी , हत्यारे और आतंकी 
स्थान नहीं ऐसों का हो प्रण ये जन जन की 

पथिक टी बोल देश के तथाकथित उन भद्र जनों को 
भद्रता है क्या ये अन्याय देखकर चुप बैठे वो 
जमकर हल्ला बोए विरोध जताए की है उनको परेशानी 
क्यों ये सहते रहते है और अधिक सहने की है ठानी 

भीरुता और कायरता द्योतक है निर्बल देश का 
पर हम है बलशाली त्याग दे मन की सब कायरता 
हमें तो करना है निर्माण एकीकृत भद्र समाज की 
जहां न हो स्थान इन हत्यारों , भ्रष्टों और आतंक की 

Friday, April 16, 2010

सदियों से माउन्ट एवेरेस्ट पर्वतारोहियों के लिए आकर्षण


सदियों से माउन्ट एवेरेस्ट पर्वतारोहियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है . इस आकर्षण का बानगी ये है की दुनिया भर स ५००० से ज्यादा पर्वतारोही एवेरेस्ट पर चढ़ाई करने के लिया हमारे पड़ोस में डेरा डाले बैठे है . अभी बेस कैम्प तैयार नहीं हुआ है . तैयार होते ही इन्हें चढ़ाई करने की अनुमति मिल जाएगी . एवेरेस्ट के अलावा ज्योयो ,ज़िज़ियाबंगामा चोटियाँ भी इनके लिस्ट में है .यह खबर हिन्दुस्तान दिनांक १६ अप्रैल २०१० से लिया गया
    

Monday, April 12, 2010

नारी संवाद

आपने कहा मैं न थी इस काबिल की मैं आपकी हो सकूँ
पर मैं ये कहती हूँ मैंने सोचा नहीं कभी आपकी हो जाऊं

आपने फ़रमाया मुझमे नहीं है वो गुण बनूँ संपूर्ण नारी
सच तो यह है हम आज के युग के  नारी नहीं अबला बेचारी

आपने कहा रंग रूप से हूँ नहीं मैं आपके समकक्ष
मैं यह कहूँ आज शिक्षित है नारी शिक्षा एकमात्र लक्ष्य

आपको है दंभ आपमें है दमखम कई लडकियां आपको चाहे
कहते है हम बार बार आप है गलतफहमी के शिकार
आप हमसे दूर दूर रहें

Sunday, April 11, 2010

VISIT INDIA - Home

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Saturday, April 10, 2010

प्रकाश की ओर

अस्त-व्यस्त ये जीवन क्यों है सुस्त-सुस्त ये चाल है क्यों
पस्त - पस्त सा क्यों है पड़ा तू ?खस्ता - खस्ता सा हाल है क्यों

असरत - कसरत कर के बनाया हृष्ट - पुष्ट सा ये काया
नष्ट न कर इस नियामत को चुस्ती तेरा सबको भाया

क्यों है निराश इस जीवन से निकल अवसाद के घेरे से
मनोकामना पूरी करले ऊबर मन के अँधेरे से

सफलता - असफलता लगा रहता है न कर निराश इस मन को तू
सफलता जिस दिन हाथ लगेगी संघर्ष के दिन न जाना भूल

निराशा में आशा छिपा है सर्वविदित है ये दर्शन
योग्य है तू काबिल है तू है जगजाहिर क्यों तू है खिन्न

Thursday, April 8, 2010

प्रेमगीत

कई बार सोचा मैंने अपने आपको भूलकर 
तुम्हारे चरणों पर समर्पित करून अपने हृदय को खोलकर 

मन ही मन सोचता हूँ दूर तुमसे मैं रहूँ 
जीवन भर एकाकी रहकर मैं अदृश्य हो जाऊं 

कोई समझे न ये मेरी गहरी प्रणय कथा 
कोई जाने न ये मेरी अश्रु पूर्ण हृदय -व्यथा 

आज कैसे मैं ये बातें सबके समक्ष कहूं 
प्रेम कितना तुमसे है ये कैसे उजागर करूँ 


कई बार सोचा मैंने अपने आपको भूलकर 
तुम्हारे चरणों पर समर्पित करूँ अपने हृदय को खोलकर 




प्राण वायु की तरह

ये विभावरी  गयी क्यों जागरण से
कौन ले गया नींद इन अखियन से 
मर गए हम तुम्हारी इन आंख मिचौली से

ये अकेली फिर रही हूँ मै किसके लिए
ये आँखें है प्यासी किसके  झलक के लिए
क्यों रुदन करे हिया केवल उसके लिए

क्यों वेदना से भर गया हृदय मेरा
ये छलछलाती आँखों का क्रंदन मेरा
कहीं बरस जाए न बादल की तरह
आ जाओ जीवन में सांसों की तरह

Wednesday, April 7, 2010

देश-दशा

रक्त-रंजित ये देश कैसे ये तरुण - अरुण भयभीत कैसे
नारी अस्मिता संकट में कैसे इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ

राज नेतायों के प्रपंच कैसे बढे अपराधिओं के हिम्मत है कैसे
ये संस्कारों का ह्रास कैसे इन प्रश्नों के उत्तर कहाँ

ये सृजन शक्ति का अपमान कैसा ये सभ्यता का परिहास कैसा
दायित्व  ये हमारा ही है चेतना जगाएं हम यहाँ

इन सवालों का जवाब देश के जो है नवाब
यदि उनमे जागृत हो सतर्कता तो डर नहीं है क्यों ज़नाब ?

हम आत्मा मंथन तो करें देखे तो अपना योगदान
अपने को जागृत करके ही गढे हम नया हिन्दोस्ताँ

Tuesday, April 6, 2010

शिव - स्तुति

जटा  में विराजे गंग गले में लिपटे भुजंग
मृग चर्म से लिपटी है नीलकंठ की कटी
भस्म चर्चित है ये काया हाथ डमरू डमडमाया
रसातल औ स्वर्ग मर्त्य गूंजे है चहुँ दिशा

नृत्य उनका मन को मोहे नटराज स्वरुप वो है
शरणागत हम है उनके स्वरुप ये मन को भाया
कर लो स्तुति शंकर की पा लो वर अपने मन की
हर हर हर महादेव समर्पित है ये काया

पुकार

 अब के बरस फिर न जाओ सजनवा बिदेस
सावन जो आयो मै हो जाऊँगी रे उदास
ये बरखा के रिमझिम ये साँसे ये धड़कन कहे
न जाओ सजन छोड़ो अब न करो धन की आस


उन पैसों का क्या काम जो ले जावे है मुझसे दूर
मेरे मन का आँगन पड़ी रह जावेगी सून
न जइयो न जइयो पुकारूँ तुझे बार बार
रुक जइयो सुनकर ये कारुणिक मेरी है पुकार

Friday, April 2, 2010

कबीर के दोहे


माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥

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