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Sunday, May 30, 2010

सुधर जाओ

इस नक्सल के कहर को क्या कहें
नृशंसा हत्या या अत्याचार
क्या उनके परिवार में नहीं कोई
भई बंधु ,या ये सब बेकार


सोते हुए को  यात्रियों  को  मारकर
क्या मिला उन्हें कोई बताये
साधारण जनता पर कहर ढा कर
मिल जाएगा क्या उन्हें जो वो चाहे


इस तरह न होगा कुछ हासिल 
चाहे जितना कर ले दहशतगर्दी 
बेबस जनता को कमजोर ना समझ 
बांधेंगे कफ़न और पहनेंगे वर्दी 


तिस पर भी अगर ये न सुधरे
तो समर्थक हम जुटाएंगे 
सरकार को देकर समर्थन हम 
एकजूट हो जायेंगे 


पर हम न चाहे ये नृशंसता 
हम में बसा है मोह माया ममता 
पर संवेदन शून्य इन नक्सालियों को 
हम भी दिखाएँगे अपनी क्षमता  

2 comments:

  1. बहुत बढिया सामयिक रचना है।बधाई।

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  2. jaane wo din kab aayega jab ham apni kshamta dikhayenge...abhi to bas napunsakta hi dikha rahe hain...waise sundar kavita...

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