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Monday, November 15, 2010

तृष्णा

इन  बारिश की बूंदों को 
तन  से लिपटने  दो 
प्यासे इस चातक का 
अंतर्मन तरने दो 


बरसो की चाहत है 
बादल में ढल जाऊं 
पर आब-ओ-हवा के 
फितरत को समझने दो 


फिर भी गर बूंदों से 
चाहत  न भर पाए 
मन की इस तृष्णा को 
बादल से भरने दो

6 comments:

  1. The initial four line are excellent, try to re-write it, after 4 lines harmony breaks somewhere.:)

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  2. बरसो की चाहत है
    बादल में ढल जाऊं
    प्रकृति के साये में रचना मुखरित है सुन्दर ..

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  3. बहोत ही अच्छी रचना......

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  4. बहुत सुन्दर भाव्।

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