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Saturday, April 22, 2017

हंसराज रहबर की पुस्तक 'नेहरू बेनकाब' का अंश-2

*"मोतीलाल पहले कानपुर में और फिर इलाहाबाद में पढ़ते रहे। पढ़ने-लिखने के बजाय खेल - कूद में उनकी ज्यादा दिलचस्पी थी। काॅलेज में वह सरकश लड़कों के अगुआ समझे जाते थे। 'मेरी कहानी' में जवाहरलाल ने लिखा है :"उनका झुकाव पश्चिमी लिबास की तरफ हो गया था और सो भी उस वक्त जबकि हिंदुस्तान में कलकत्ता और बंबई जैसे बड़े शहरों को छोड़कर कहीं इसका चलन नहीं था। वह तेज मिजाज और अक्खड़ थे, तो भी उनके अंग्रेज प्रोफेसर उनको बहुत चाहते थे और अक्सर मुश्किलों से बचा लिया करते थे। वह उनकी स्पिरिट को पसंद करते थे। उनकी बुद्धि तेज थी और कभी - कभी एकाएक जोर लगाकर वह क्लास में भी अपना काम ठीक चला लेते थे।" मोतीलाल ने मैट्रिक का इम्तहान इलाहाबाद में पास किया, लेकिन बी. ए. का इम्तहान देने के लिए आगरे जाना पड़ा। पहला ही पर्चा मन के माफिक नहीं हुआ ;इसलिए इम्तहान छोड़-छाड़कर ताजमहल देखने चले गये। इसके बाद बी. ए. पास करने की नौबत ही नहीं आई। उनकी रुचि कानून में थी। वकालत का इम्तहान दिया और वह अव्वल दर्जे में सफल हुए। कानपुर की अदालत में वकालत शुरू की और इतनी लगन तथा मेहनत से काम किया कि थोड़े ही दिनों में अपनी काबलियत का सिक्का जमा दिया। अब भी वह खेल - तमाशों के शौकीन थे और कुश्तियों में उनकी खास दिलचस्पी थी। तीन साल के बाद वह भी कानपुर से इलाहाबाद आ गए और हाईकोर्ट में वकालत शुरु कर दी। इन्ही दिनों बड़े भाई नंदलाल नेहरू की अचानक मृत्यु हो गई। अब सारे कुटुम्ब का बोझ मोतीलाल के कंधों पर आ पड़ा। वह अपने पेशे में जी - जान से जुट गये। बड़े भाई के करीब - करीब सभी मुकदमे उन्हें मिल गए और उनमें खूब सफलता प्राप्त हुई। छोटी ही उम्र में अपने पेशे में उन्हें इतनी नामवरी हासिल हुई कि मुकदमे धड़ाधड़ आने लगे और रुपया मेंह की तरह बरसने लगा। अब उन्होंने खेल - तमाशों और दूसरी सारी बातों से ध्यान हटाकर अपनी पूरी शक्ति वकालत में लगा दी थी। कांग्रेस चाहे उन दिनों उस मध्य वर्ग के पढ़े-लिखे लोगों, डाक्टरों और वकीलों ही की जमात थी, लेकिन मोतीलाल ने इस तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया। बेटा लिखता है : "साधारण अर्थ में वह जरूर ही राष्ट्रवादी थे। मगर वह अंग्रेजों और उनके तौर-तरीकों के कद्रदां थे। उनका यह खयाल बन गया था कि हमारे देशवासी ही नीचे गिर गये हैं और वे जिस हालत में हैं, बहुत - कुछ उसी के लायक भी हैं। जो राजनैतिक लोग बातें ही किया करते हैं, करते - धरते कुछ नहीं, उनमें वह मन ही मन कुछ नफरत - सी करते थे। हालांकि वह यह नहीं जानते थे कि इससे ज्यादा और वे कर ही क्या सकते थे? हां, एक और खयाल भी उनके दिमाग में था, जो उनकी कामयाबी के नशे से पैदा हुआ था। वह यह कि जो राजनीति में पड़े हैं, उनमें ज्यादातर - सब नहीं - वे लोग हैं, जो अपने जीवन में नाकामयाब हो चुके हैं। " खैर, ज्यों - ज्यों आमदनी बढ़ रही थी, रहन-सहन में भी परिवर्तन आ रहा था।

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