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Monday, May 3, 2010

्परमेश्वरस्तोत्रम्


जगदीश सुधीश भवेश विभो परमेश परात्पर पूत पित:
प्रणतं पतितं हतबुद्धिबलं जनतारण तारय तापितकम् ॥१॥

गुणहीणसुदीनमलीनमतिं त्वयि पातरि दातरि चापरतिम् ।
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं ।  जन0 ॥2॥
मम जीवनमीनमिमं पतितं मरूघोरभुवीह सुवीहमहो ।
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयनं । जन0 ॥3॥
भववारण कारण कर्मततौ भवसिन्धुजले शिव मग्नमत:
करुणाञ्च समर्प्य तरिं त्वरितं । जन0 ॥4॥
अतिनाश्य जनुर्मम पुण्यरुचे दुरितौघभरै:परिपूर्णभुव:
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं । जन0 ॥5॥
भवकारक नारकहारक हे भवतारक पातकदारक हे ।
हर शङ्कर किङ्करकर्मचयं । जन0 ॥6॥
तृषितश्चिरमस्मि सुधां हित मेऽच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर ।
अतिमोहवशेन विनष्टकृतं । जन0 ॥7॥
प्रणमामि नमामि नमामि भवं भवजन्मकृतिप्रणिषूदनकम् ।
गुणहीनमनन्तमितं शरणं । जन0 ॥8॥

1 comment:

  1. संस्‍कृत विषयक आस्‍था के लिये आपका बहुत आभार।

    बडा ही उत्‍तम कार्य कर रहे हैं।

    दुर्लभ स्‍तोत्रों का संग्रह कार्य वस्‍तुत: सराहनीय है।


    मौका निकालकर हमारे भी ब्‍लाग पर आइये आपको अवश्‍य ही अच्‍छा लगेगा।
    http://sanskrit-jeevan.blogspot.com/

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