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Saturday, July 31, 2010

मेरी चंडीगढ़ यात्रा .........

पिछले दिनों मै चंडीगढ़ में थी . इस मौसम बहुत सुहाना था नीचे चित्रों को देख कर ही समझ सकते है


पहली तस्वीर झील की है जो की चंडीगढ़ का शान है और दूसरी तस्वीर गुलाब वाटिका की है जिसे आशिया का सबसे बड़ा गुलाब उद्यान का खिताब प्राप्त है 

Friday, July 30, 2010

धरित्री पर खडा हूँ मै


धरित्री पर खडा हूँ मै 
अटल अडिग जड़ा हूँ मै
नीव है मेरा गर्त में 
फौलाद सा कड़ा हूँ मै (1)



पर्वत मुझे सब कहे 
वन को अंक में लिए 
झरनों ,नदों से हूँ सुसज्जित 
देश  का रक्षक हूँ मै (2)
शत्रु को डराऊं मै 
पशुओं को छिपाऊँ मै 
औषधों से इस धरा को 
अजर अमर बनाऊँ मै (3)
फिर ये कैसी  शत्रुता 
वन को क्यों है काटता 
रे मनुष्य संभल जा 
मैं हूँ तुम्हारी आवश्यकता (4)
क्यों हो वन को काटते 
नदी को क्यों हो मोड़ते
ये प्रवाह ,ये तरंग स्वतः है 
इसे हो तुम क्यों छेड़ते (5)
व्यथा ये मन की नदी कहे 
नालों से क्यों हो जोड़ते 
जल जीव को भी हक़ है ये 
जीये और जीते रहे  (6)
वन्य   प्राणी   ये कहे 
वृक्ष क्यों ये कट  गए  
पनाह है ये जीवों  का 
तुम आये और काट के चल दिए  (7)

परिणाम है बहुत बुरा 
धरती  बंजर  कहलायेगा 
ना बरसेंगे ये घनघटा  
ना  तूफां को रोक  पायेगा  (8)




Monday, July 26, 2010

कविता रच डाली

आसमान में बादल छाया 
छुप गया सूरज शीतल छाया 
मेरे इस उद्वेलित मन ने 
          कविता रच डाली 

Storm Watchठंडी हवा का झोंका आया 
कारी बदरी मन भरमाया 
मन-मयूर ने पंख फैलाकर 
          कविता रच डाली 
गीली मिटटी की खुश्बू से 
श्यामल-श्यामल सी धरती से 
मन के अन्दर गीत जागा और 
            कविता रच डाली 

ये धरती ये कारी बदरी 
मन को भरमाती ये नगरी 
उद्वेलित कर गयी इस मन को और मैंने 
                        कविता रच डाली

Saturday, July 24, 2010

छोटा सा,एक रत्ती ,चूहा.........

  छोटा सा,एक रत्ती ,चूहा एक नन्हा 
आँखे अभी खुली नही एकदम काना 

टूटा एक दराज का जाली से भरा कोने में 
माँ के सीने से चिपक कर उनकी बाते सुने रे 

जैसे ही उसकी बंद आँखे खुली दराज के अन्दर 
देखा बंद है कमरा उसका लकड़ी का है चद्दर 

खोलकर अपने गोल-गोल आँखे देख दराज को बोला 
बाप  रे बाप!ये धरती सचमुच है कितना ss बड़ा 

कवी सुकुमार राय द्वारा रचित कविता का अनुवाद
इस  कविता  में  एक  सद्यजात चूहे की मनस्थिति का वर्णन किया गया है कोई भी बच्चा जनम लेने के पश्चात धीरे धीरे देखना शुरू करता है जनम के तुरंत बाद आँखे नही खुलती खुलती है तो देखने की क्षमता नही होती .इस कविता में इसी स्थिती का वर्णन किया गया है की जब उसकी आँखे खुली और देखना शुरू किया तो वो छोटा सा दराज़ भी बहुत बड़ा लगने लगा . 

Friday, July 23, 2010

मकड़ी और मक्खी


       (मकडी)
धागा  बुना   अंगना में मैंने
जाल बुना कल रात मैंने 
         जाला झाड साफ़ किया है वास *
आओ ना मक्खी मेरे घर
आराम मिलेगा बैठोगे जब 
         फर्श बिछाया देखो एकदम खास *
         (मक्खी)
छोड़ छोड़ तू और मत कहना 
बातों से तेरा मन गले ना 
         काम तुम्हारा क्या है मैं सब जानूं* 
फंस गया गर जाल के अन्दर 
कभी सुना है वो लौटा फिर 
         बाप रे ! वहाँ घुसने की बात ना मानूं *
           (मकड़ी)
हवादार है जाल का झूला 
चारों ओर  खिडकी है खुला 
          नींद आये खूब आँखे हो जाए बंद *
आओ ना यहाँ हाथ पाँव धोकर 
सो जाओ अपने पर मोड़कर 
          भीं-भीं-भीं उड़ना हो जाए बंद *
            (मक्खी)
ना चाहूँ मैं कोई झूला 
बातों में आकर गर स्वयं को भूला 
          जानूं है प्राण का बड़ा ख़तरा *
तेरे घर नींद गर आयी 
नींद से ना कोई जग पाए 
         सर्वनाशा है वो नींद का कतरा *
             (मकड़ी)
वृथा तू क्यों विचारे इतना 
इस कमरे में आकर देख ना 
         खान-पान से भरा है ये घरबार *
आ फ़टाफ़ट डाल ले मूंह में 
नाच-गाकर रह इस घर में 
         चिंता छोड़ रह जाओ बादशाह  की तरह *
              (मक्खी)
लालच बुरी बला है जानूं 
लोभी नहीं हूँ ,पर तुझे मैं जानूं 
          झूठा लालच मुझे मत दिखा रे  *
करें क्या वो खाना खाकर 
उस भोजन को दूर से नमस्कार 
          मुझे यहाँ भोजन नही करना रे *
              (मकडी)
तेरा ये सुन्दर काला बदन 
रूप तुम्हारा सुन्दर सघन 
          सर पर मुकुट आश्चर्य से निहारे  *
नैनों में हजार माणिक जले 
इस इन्द्रधनुष पंख तले 
          छे पाँव से आओ ना धीरे-धीरे *
            (मक्खी)
मन मेरा नाचे स्फूर्ति से 
सोंचू जाऊं एक बार धीरे से 
            गया-गया-गया मैं बाप रे!ये क्या पहेली *
ओ भाई तुम मुझे माफ़ करना 
जाल बुना तुमने मुझे नहीं फसना 
          फंस जाऊं गर काम नआये कोई सहेली *
              (उपसंहार)
दुष्टों की बातें होती चाशनी में डुबोया 
आओ गर बातों में समझो जाल में फंसाया 
          दशा तुम्हारा होगा ऐसा ही सुन लो *
बातों में आकर ही लोग मर जाए 
मकड़जीवी धीरे से समाये 
           दूर से करो प्रणाम और फिर हट लो * 

कवि सुकुमार राय द्वारा रचित काव्य का अनुवाद 

          



Wednesday, July 21, 2010

देश बेच डाला...............

बस्तों और किताब ने मिलकर 
बचपन खो डाला 
माता-पिता के दबाव ने मिलकर 
बचपन धो डाला 

समाज के कुरीतियों ने तो 
शोषण कर डाला 
प्रशासन की अकर्मण्यता ने तो 
सेंध लगा डाला 

सरकार की ढुलमुल नीतियों ने तो 
महंगाई कर डाली 
विरोधियों की राजनीति ने तो 
नक्सल बना डाला 

पडोसी देश के हुज्जत ने तो 
नीद उड़ा डाली .
कोई आश्चर्य नही की इन सबने 
देश बेच डाला  

झारखण्ड के वैज्ञानिक को डॉ. श्रीकांत पाल .................

यह पढ़कर अच्छा लगा की झारखण्ड के वैज्ञानिक को डॉ. श्रीकांत पाल जो की पश्चिम बंगाल के बांकुर जिले से हैं, से ब्रिटिश मौसम विभाग ने उनसे सिग्नल की समस्या के लिए हल माँगा है और उन्हें ससम्मान ब्रिटेन बुलाया है 
इन्होंने अमेरिका में ग्रीन बैंड टेलिस्कोप (जीबीटी) के जरिए उपग्रह के सिग्नलों में हस्तक्षेप की समस्या को खत्म किया था। अब वे ब्रिटिश जॉडरेल बैंक ऑब्जरवेटरी की उसी समस्या का निदान बताएँगे। 
डॉ. पाल ने इस तरह के फिल्टर विकसित किए हैं, जो सिग्नल के डिस्टर्बंस को होने नहीं देते हैं। ये सिग्नल उपग्रह से 485 फीट ऊपर जीबीटी रेडियो टेलिस्कोप से आते हैं। इसके लिए दो अत्यधिक क्षमता के हाई टेम्परेचर सुपरकंडटिंग (एचटीएस) बैंडस्टॉप फिल्टर्स लगाए थे। उन्होंने समस्या हल करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट भी लगाए थे। तब वे ब्रिटेन की बर्मिंघम विवि से डॉक्टरेट के बाद एक शोध कर रहे थे। 

अमेरिका के पश्चिम वर्जिनिया में पोकाहंतास काउंटी में पूर्ण रूप से घूमने वाला रेडियो टेलिस्कोप फिल्टरों के लगाने पर बेहतर तरीके से काम करने लगा था। डॉ. पाल झारखंड में स्थित बिरसा प्रौद्योगिकी संस्थान, मेरसा में प्रोफेसर हैं। वे जॉडरेल बैंक ऑब्जर्वेटरी के लिए फ्रीक्वेंसी बेंडपास पर काम कर रहे हैं। 

यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्टीयरेबल रेडियो टेलिस्कोप है। फिल्टर से निश्चित मात्रा की आवृत्ति जा सकेगी और अवरोध हट जाएगा। उन्होंने बताया कि जब मैं बर्मिंघम के विवि में अगली बार जाऊँगा तब इसका परीक्षण 

करूँगा। इसी विवि ने हाल ही में उनको ऑनररी रिसर्च फैलो बनाया है।
समाचार वेब दुनिया साभार 



Wednesday, July 14, 2010

मुझे आज एक सन्देश मिला मोबाइल में .......लीजिये आप भी पढ़ लीजिये

A poor man catches a fish
but his wife cant cook due to mahangaai
no gas
no spices
no oil
man put d fish back in river
N fish shouts  CONGRESS ZINDABAD

Tuesday, July 13, 2010

दिन में दिखा तारा



लौटे सब स्कूल में अब 
समाप्त  हुआ छुट्टी 
फिर से चले किताब लिए 
सब है दुखी-दुखी 

पढने के बाद सब बच्चों  का 
इरादा क्या था इसबार 
समय हुआ है अब 
हिसाब देने की है दरकार 

किसी ने पढ़ा  पोथी पत्र 
और किसी ने किये केवल गप्प
कोई तो था किताबी कीड़ा 
और कुछ  ने पढ़ा अल्प 

कुछ बच्चो ने रट्टा मारा 
किया रटकर याद 
कुछ ने तो बस किसी तरह 
समय दिया काट 

गुरूजी ने डांटकर पूछा 
सुन रे तू गदाई 
इस बार तुने पढ़ा भी कुछ 
या खेलकर समय बिताई 

गदाई ने तो डर के मारे 
आँखे फाड़कर खाँसा
इस बार तो पढ़ाई भी था 
कठिन सर्वनाशा 

ननिहाल मै घूमने गया 
पेड़ पर खूब चढ़ा 
धडाम से मै ऐसे गिरा 
दिन में दिखा तारा 

कवि सुकुमार राय द्वारा रचित कविता का काव्यानुवाद 

Tuesday, July 6, 2010

अच्छा ही अच्छा..........

इस दुनिया में सब है अच्छा 
असल भी अच्छा नक़ल भी  अच्छा

सस्ता भी अच्छा महँगा भी अच्छा 
तुम भी अच्छे मै भी अच्छा 

वहां गानों का छंद भी अच्छा 
यहाँ फूलों का गंध भी अच्छा 

बादल से भरा आकाश भी अच्छा 
लहरों को जगाता वातास भी अच्छा 

ग्रीष्म अच्छा वर्षा भी अच्छा 
मैला  भी अच्छा साफ़ भी अच्छा 

पुलाव अच्छा कोरमा भी अच्छा 
मछली परवल का दोरमा भी अच्छा 

कच्चा भी अच्छा पका भी अच्छा 
सीधा भी अच्छा टेढा भी अच्छा 

घंटी भी अच्छी ढोल भी अच्छा 
चोटी भी अच्छा गंजा भी अच्छा 

ठेला गाडी ठेलना भी अच्छा 
खस्ता पूरी बेलना भी अच्छा 

गिटकीड़ी गीत सुनने में अच्छा 
सेमल रूई धुनने में अच्छा 

ठन्डे पानी में नहाना भी अच्छा 
पर सबसे अच्छा है ...................

सूखी रोटी और गीला गुड 

कवि सुकुमार राय के कविता का काव्यानुवाद 

Monday, July 5, 2010

कागज़ कलम लिए............

कागज़ कलम लिए बैठा हूँ सद्य 
आषाड़ में मुझे लिखना है बरखा का पद्य

क्या लिखूं क्या लिखूं समझ ना पाऊँ रे 
हताश बैठा हूँ और देखूं बाहर रे 

घनघटा सारादिन नभ में बादल दुरंत 
गीली-गीली धरती चेहरा सबका चिंतित 

नही है काम घर के अन्दर कट गया सारादिन 
बच्चों के फुटबोल पर पानी पड़ गया रिमझिम 

बाबुओं के चहरे पर नही है वो स्फूर्ति 
कंधे पर छतरी हाथ में जूता किंकर्तव्य विमूढ़ मूर्ती 

कही पर है घुटने तक पानी कही है घना कर्दम 
फिसलने का डर है यहाँ लोग गिरे हरदम 

मेढकों का महासभा आह्लाद से गदगद 
रातभर  गाना चले अतिशय बदखद

श्री सुकुमार राय द्वारा रचित काव्य का काव्यानुवाद  

पिंजरे की चिड़िया थी

पिंजरे की चिड़िया थी           सोने के पिंजरे में
                 वन कि चिड़िया थी वन में
एकदिन हुआ                 दोनों का सामना
             क्या था विधाता के मन में

वन की चिड़िया कहे    सुन पंजरे की चिड़िया रे
         वन में उड़े दोनों मिलकर
पिंजरे की चिड़िया कहे        वन की चिड़िया रे
            पिंजरे में रहना बड़ा सुखकर

वन की चिड़िया कहे ना ......
   मैं पिंजरे में कैद रहूँ क्योंकर
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
     निकलूँ मैं कैसे पिंजरा तोड़कर

वन की चिड़िया गाये    पिंजरे के बाहर बैठे
          वन के मनोहर गीत
पिंजरे की चिड़िया गाये     रटाये हुए जितने
         दोहा और कविता के रीत

वन की चिड़िया कहे    पिंजरे की चिड़िया से
       गाओ तुम भी वनगीत
पिंजरे की चिड़िया कहे    सुन वन की चिड़िया रे
        कुछ दोहे तुम भी लो सीख

वन की चिड़िया कहे ना ...........
     तेरे सिखाये गीत मैं ना गाऊं
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय!
     मैं कैसे वनगीत गाऊं

वन की चिड़िया कहे    नभ का रंग है नीला
      उड़ने में कहीं नहीं है बाधा
पिंजरे की चिड़िया कहे    पिंजरा है सुरक्षित
      रहना है सुखकर ज्यादा

वन की चिड़िया कहे   अपने को खोल दो
     बादल के बीच, फिर देखो
पिंजरे की चिड़िया कहे   अपने को बांधकर
     कोने में बैठो, फिर देखो

वन की चिड़िया कहे ना.......
     ऐसे में उड़ पाऊँ ना रे
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
     बैठूं बादल में मैं कहाँ रे

ऐसे ही दोनों पाखी    बातें करे रे मन की
     पास फिर भी ना आ पाए रे
पिंजरे के अन्दर से     स्पर्श  करे रे मुख से
         नीरव आँखे सबकुछ कहे रे

दोनों ही एक दूजे को     समझ ना पाए रे
        ना खुद समझा पाए रे

दोनों अकेले ही       पंख फड़फड़आये 
        कातर कहे पास आओ रे 

वन की चिड़िया कहे ना............
      पिंजरे का द्वार हो जाएगा रुद्ध 
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय 
   मुझमे शक्ति नही है उडूं खुद 

गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर द्वारा रचित काव्य का काव्यानुवाद 

Thursday, July 1, 2010

धरा ने अपने प्रांगन में................

  धरा ने अपने प्रांगन में 
निमंत्रण दिया है जन-जन को 
त्रिनासन है बिछाया 
तृप्त जो करना है 
प्रानमन को 
Mountain Paradise Preview
नदी ने भी निमंत्रण सुन 
समर्पित किया अपने जल को 
आकाश भी आ पहुंचे 
लेकर साथ पवन देव को 

सूर्य और चन्द्रमा ने तो 
सुसज्जित किया अपने किरण से 
पवन देव ने निमंत्रण स्थल को 
शीतल किया अपने बल से 

मृदु भाव से पशु-पक्षी ने 
अपना स्थान ग्रहण किया 
ये मनोरम दृश्य  देख
तीनो लोक अभीभूत हुआ

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